फूलन देवी : The Bandit Queen---पार्ट-2
फूलन मायके में ही जवान होती है। उसकी जवानी पर गाँव के सरपंच के आवारा मोड़े और उसके साथी मोड़ों की नज़र होती है। वे उसे आते-जाते छेड़ते हैं और एक दिन खेत में अकेली को घेरकर ज़बरदस्ती करने की कोशिश करते हैं। ज़बरदस्ती तो नहीं कर पाते, लेकिन सब मिलकर उसे बुरी तरह से पीटते हैं। गाँव में पंचायत बैठती है और फूलन पर बदचलनी का एक तरफ़ा आरोप लगा उसे गाँव बाहर कर देती है। बार-बार प्रताड़ित, बार-बार बलात्कार फूलन के विद्रोही स्वभाव को कुचल नहीं पाता, बल्कि और भड़काता है।
जब वह बंदूक थाम लेती है। पुत्तीलाल से बदला लेने पहुँचती है। पुत्तीलाल को गधे पर बैठाया जाता है। फिर लकड़ी के खम्बे से बाँध कर मारती-पीटती है। लेकिन जब वह यह कर रही होती है, उसके कान में ख़ुद की ही चीत्कार गूँजती है। वह चीत्कार जो कभी पुत्तीलाल द्वारा ज़बरदस्ती करने का विरोध करते हुए ससुराल में गूँजी थी। ग्यारह बरस की एक बहू जब मदद के लिए चीत्कार रही थी। सास दरवाजा भीड़कर दूसरी तरफ़ चली गयी थी। बदला लेते वक़्त उसे वह सब याद आ रहा था। उसकी छटपटाहट, उसे ग़ुस्से का पारावार किसी की भी मग़ज़ सुन्न कर देने वाला होता है। यहाँ फूलन अपने साथी विक्रम मल्लाह से कहती है- एस पी को चीट्ठी लिख…, अगर कोई छोटी मोड़ी को ब्याहेगा तो जान ले लूँगी।
जब फूलन को यह सब भोगना पड़ रहा था, तब केन्द्र और म.प्र. में काँग्रेस की सरकार थी। वही काँग्रेस, जो आज़ादी के बाद से ख़ुद को दबे-कुचलों के हित का ध्यान रखने वाली पार्टी होने का ढींढ़ोरा पीटती रही है। वही काँग्रेस जिसका इतिहास आज़ादी के आँदोलन में महत्तपूर्ण भूमिका निभाने वाला रहा है। उस पर धीरे-धीरे दबंगों और ठाकुरों ने किस तरह से कब्जा कर लिया। उस काँग्रेस का जैसे अर्थ ही बदल गया। जब फूलन अपने मान-सम्मान का बदला लेने और ख़ुद को ज़िन्दा बचाये रखने की लड़ाई लड़ रही थी, तब प्रदेश और देश की राजनीति में और सरकारों में भी ठाकुरों का ही बोलबाला था। इन ठाकुर नेताओं के संरक्षण में या आड़ में कह लो, इनके रिश्तेदार, और ख़ुद इन्हीं के द्वारा ग़रीब और मज़दूर वर्ग के लोगों पर किये जाने वाले शोषण और अत्याचार की कोई सीमा नहीं थी।
जंगल में भी जो ठाकुर डाकू थे, उनका दूसरे डाकू गिरोहों पर दबदबा था। जो उनके दबदबे को स्वीकार नहीं करता था, उसे या तो ख़ुद डाकू ही मार देते या पुलिस से मरवा देते। सरकार, पुलिस और डाकू सभी में ठकुराइ के प्रति बड़ी वफ़ादारी थी। डाकू बाबू गुर्जर को तो विक्रम मल्लाह उस वक़्त मार देता है, जब वह बीहड़ में फूलन के साथ ज़बरदस्ती कर रहा होता है। उसके कुछ वफ़ादारों को भी मार देता है और गेंग का लीडर बन जाता है।
जब वह बंदूक थाम लेती है। पुत्तीलाल से बदला लेने पहुँचती है। पुत्तीलाल को गधे पर बैठाया जाता है। फिर लकड़ी के खम्बे से बाँध कर मारती-पीटती है। लेकिन जब वह यह कर रही होती है, उसके कान में ख़ुद की ही चीत्कार गूँजती है। वह चीत्कार जो कभी पुत्तीलाल द्वारा ज़बरदस्ती करने का विरोध करते हुए ससुराल में गूँजी थी। ग्यारह बरस की एक बहू जब मदद के लिए चीत्कार रही थी। सास दरवाजा भीड़कर दूसरी तरफ़ चली गयी थी। बदला लेते वक़्त उसे वह सब याद आ रहा था। उसकी छटपटाहट, उसे ग़ुस्से का पारावार किसी की भी मग़ज़ सुन्न कर देने वाला होता है। यहाँ फूलन अपने साथी विक्रम मल्लाह से कहती है- एस पी को चीट्ठी लिख…, अगर कोई छोटी मोड़ी को ब्याहेगा तो जान ले लूँगी।
जब फूलन को यह सब भोगना पड़ रहा था, तब केन्द्र और म.प्र. में काँग्रेस की सरकार थी। वही काँग्रेस, जो आज़ादी के बाद से ख़ुद को दबे-कुचलों के हित का ध्यान रखने वाली पार्टी होने का ढींढ़ोरा पीटती रही है। वही काँग्रेस जिसका इतिहास आज़ादी के आँदोलन में महत्तपूर्ण भूमिका निभाने वाला रहा है। उस पर धीरे-धीरे दबंगों और ठाकुरों ने किस तरह से कब्जा कर लिया। उस काँग्रेस का जैसे अर्थ ही बदल गया। जब फूलन अपने मान-सम्मान का बदला लेने और ख़ुद को ज़िन्दा बचाये रखने की लड़ाई लड़ रही थी, तब प्रदेश और देश की राजनीति में और सरकारों में भी ठाकुरों का ही बोलबाला था। इन ठाकुर नेताओं के संरक्षण में या आड़ में कह लो, इनके रिश्तेदार, और ख़ुद इन्हीं के द्वारा ग़रीब और मज़दूर वर्ग के लोगों पर किये जाने वाले शोषण और अत्याचार की कोई सीमा नहीं थी।
जंगल में भी जो ठाकुर डाकू थे, उनका दूसरे डाकू गिरोहों पर दबदबा था। जो उनके दबदबे को स्वीकार नहीं करता था, उसे या तो ख़ुद डाकू ही मार देते या पुलिस से मरवा देते। सरकार, पुलिस और डाकू सभी में ठकुराइ के प्रति बड़ी वफ़ादारी थी। डाकू बाबू गुर्जर को तो विक्रम मल्लाह उस वक़्त मार देता है, जब वह बीहड़ में फूलन के साथ ज़बरदस्ती कर रहा होता है। उसके कुछ वफ़ादारों को भी मार देता है और गेंग का लीडर बन जाता है।
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