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Showing posts from July, 2016

खुशनसीब हो जो ऐसे रहनुमा मिले

लोकनाथ तिवारी, Lokenath Tiwary अब तक मेरी बेटर हाफ या यूं कहिए कि मेरा दिल, जिगर, कलेजा, फेफड़ा, मन, मिजाज और भी बहुत कुछ, मेरी मलिकाइन ही मुझे नसीब का ताना देकर कोसती रहती थीं। अब इसमें एक और साहब का दखल हो गया है। आपकी भउजाई (अरे भई गोलुवा की मम्मी) सदा यही कहती रहती हैं कि पहले आप निठल्ले घूमते रहते थे। मेरे चरण इस घर में, और मेरा हाथ आपके हाथ में आने के बाद मेरे नसीब से आपको ये नौकरी मिली। अब उसे कौन बताये कि ये नौकरी किसी के नसीब का फल नहीं बल्कि मेरे पिछले कई जन्मों के पापों की एकमुश्त सजा है। ये तो वही समझ सकते हैं, जो मेरी तरह निशाचर होंगे। बाकी लोग क्या जाने पीर पराई। उनके पैरों में बिवाई फटी होगी तब न समझेंगे। यहां तो सूर्योदय देखना साल में एकाध दिन ही नसीब हो पाता है। आधी रात के बाद घर पहुंचते हैं और रमजान के सहरी के समय पर डिनर लेते हैं। उल्लुओं की तरह सोते हैं। जब तक बिस्तर से निकलते हैं तब तक लोगबाग अपने-अपने काम में मगन रहते हैं। बीबी के नसीब से मिली नौकरी की बड़ाई का क्या करूं। खोलकर बता दूं कि पत्रकारिता कर किसी तरह गुजर हो रहा है। खैर अपनी नौकरी का रोना फिर कभी। बात

खुद पर हंसना आसान नहीं

लोकनाथ तिवारी (Lokenath Tiwary) खुद पर हंसना आसान नहीं होता। जो ऐसा करते हैं वे जिंदादिल होते हैं। सिख भी उन्हीं में से एक हैं। स्वयं पर बनाये गये चुटकुलों पर अट्टाहास कर वे यह साबित करते हैं कि वे दूसरों की तुलना में कितने उदार हृदयी और ख्ाुले दिलवाले हैं। भले ही सिखों के एक वर्ग को उन पर बनाये गये च्ाुटकुले रास न आते हों लेकिन आज तक हमारे सरदार मित्रों ने इस तरह की भावना नहीं दर्शायी है। उन पर चुटकुले सुनाकर तो कई बार सुनानेवाले ही हंसी के पात्र बन जाते हैं। अब अदालत में सिखों पर बने चुटकुले पर प्रतिबंध लगाने की मांग जोर शोर से उठायी जा रही है। सिखों पर बनाए जाने वाले चुटकुलों को किस तरह से रोका जाए, इसके तरी़के बताने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सिख समूहों को छह सप्ताह का समय दिया है।  गौरतलब है कि सिख चुटकुलों पर पाबंदी की मांग करते हुए दिल्ली की 54 वर्षीय सिख वकील, हरविंदर चौधरी ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एक अपील दायर की थी। अदालत में दायर अपील में चौधरी ने कहा था कि इंटरनेट पर पांच हज़ार वेबसाइट हैं जो सिखों पर चुटकुले बनाकर बेचती हैं। इन चुटकुलों में सिखों को बुद्धू, पागल, मूर

कैसे सुधरे रिश्‍वत देने की आदत

कैसे सुधरे रिश्‍वत देने की आदत लोकनाथ तिवारी रिश्‍वत देना अब हमारी आदत बन गयी है। बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र से लेकर मृत्यु प्रमाणपत्र तक के लिए हम इतनी आसानी से रिश्‍वत ऑफर कर बैठते हैं, जितनी आसानी से हमारे नेता झ्ाूठ झ्ाूठ बोलते हैं। रिश्‍वत लेना-देना अब नौकरशाही के अनेक नियमों में से एक नियम हो गया है। अब लोग रिश्‍वत लेने-देने को बुरा नहीं समझते बल्कि जो इस बात का विरोध करता है, उसे बेवकूफ़ और अति आदर्शवादी या पागल मान लेते हैं। बाबा आदम के जमाने में शायद रिश्‍वत लेने वालों को समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। अब ऐसा नहीं है। अब तो बाकायदा उनका ग्ाुणगान किया जाता है। उनकी शान में कसीदे पढ़े जाते हैं। पहले शपथ दिलायी जाती थी कि ईमानदारी से कर्तव्य का पालन करेंगे। अब भी शपथ लेते हैं पर पहले ही घ्ाूस देकर सर्विस हासिल करनेवालों से शपथ पर कायम रह पाना उचित भी नहीं कहा जा सकता। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या रिश्‍वतखोरी की हो गयी है। अब तो लोग इसे समस्या मानना ही बंद कर दिये हैं। इसे रोजमर्रा के  जीवन का एक हिस्सा मान लिये हैं। शासन प्रणाली के हर छोट