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Showing posts from April, 2012

भड़काऊ पहनावा या कमजोर चरित्र

हर वह स्त्री वेश्या नहीं होती और ना ही हो सकती है, जो अपनी पसंद के कपड़े पहने। सवाल यह भी है कि उकसाने वाले कपड़े अगर पहने भी है तो पुरुष की अपनी नैतिकता कौन तय करेगा? पुरुष का चरित्र इतना दुर्बल क्यों हैं कि पहनावे या नारी काया को देखते ही पतनोन्मुख हो जाता है? नैतिकता और गरिमा की सारी जिम्मेदारी महिलाओं के ही सिर पर क्यों? अगर कोई लड़की सुंदर व आकर्षक लग रही है तो इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि वह यौन आमंत्रण दे रही है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि पुरुष अपने पर काबू ही ना रख पाए और उस पर टूट पड़े तथा बाद में इसका दोष लड़की के कपड़ों पर मढ़ दे? हमारे देश के दक्षिणी भाग में स्थित एक बड़े राज्य के पुलिस विभाग के मुखिया ने अपने सुविचार व्यक्त करते समय महिलाओं के पोशाक व पहनावे को निशाना बनाया है, जिस पर विवाद खड़ा हो गया है। हालांकि केन्द्गीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने इस बयान का विरोध करते हुए कहा है कि हर नागरिक को अपनी पसंद के कपड़े पहनने का अधिकार है। पहनावा अवसर के हिसाब से होना चाहिए। जाहिर है कि आप जब फुटबॉल या टेनिस खेलने जाते हैं तो ऊपर से नीचे तक कपड़ों में लिपटकर नहीं जा सकते। वहीं किसी कॉ

गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में

'वैलेंटाइन डे’ का मौसम शुरू हो गया है। कुछ देकर दिल लेने या देने की परंपरा हमारे देश में कहाँ से आई, इसका कोई ऑथेंटिक इतिहास नहीं मिल पाया है। 'रोज डे’, 'प्रपोज डे’, 'चॉकलेट डे’, टेडी बीयर डे, 'हग डे’ और 'किस डे’ के बाद वैलेंटाइन डे का बहुप्रतीक्षित दिवस आता है। इन दिनों को माध्यम बनाकर प्रेमी युगल एक दूसरे के प्रति अपने दिल की भावनाओं को उजागर करते हैं। हाँ, इसके पहले कुछ न कुछ देकर अपनी सुरक्षा पुख़्ता करने की कोशिश जरूर की जाती है। स्वयंभू प्रेमगुरुओं का मानना है कि पहले किसी के समक्ष प्रेम का इजहार करना खतरे से खाली नहीं होता था। पता नहीं कब लेने के देने पड़ जाए। कुछ देकर खुश करने के बाद अपने दिल की भावनाओं को जुबान देने में कम खतरा होता है। पहले तो चिTियों के माध्यम से दिल की बात कही जाती थी, जिसमें बहुत खतरा भी होता था। खत के साथ गुलाब या गेंदे का फूल भी होता था। साथ में यह करबद्ध अनुनय विनय भी होती थी कि इसे अपने भाई, पिता या काका के हाथ में नहीं पड़ने दें। भले ही प्रेम प्रस्ताव ठुकराकर राखी बाँधने की नौबत आ जाए, प्रेम के इजहार में अच्छे-अच्छों की घिग्

टुकड़े-टुकड़े मेंं बंटती जिन्दगी

बांटो और राज करो (डिवाइड एंड रूल) की नीति अंग्रेजों ने यूं ही नहीं अपनाई थी। यह तो मानव जाति के डीएनए में बसी हुई है। पूरी मानव जाति से हम भारतीय भी शामिल हैं। हमारी फितरत में तो सदैव बटवारे का भूत सवार रहता है। जब हम पृथ्वी से बाहर होते हैं तो हमें दूसरे ग्रहों की तुलना में अपनी धरती सुंदर लगती है। धरती पर हमें एशिया महाद्बीप खूबसूरत लगता है। यहां तक कि विश्व कप फुटबाल या हॉकी प्रतियोगिताओं में हमारी टीम नहीं होने पर हम एशियाई समर्थक बन जाते हैं। विदेश यानि पश्चिमी महादेशों में होने पर एशियाई होने की भावना, एशिया में आते ही दक्षिण एशिया या सार्क देशीय बन जाती है। यहां तक कि हमारे प्रथम अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा को भी चांद से 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा’ दिखा। भारत मेें पहले तो हम दक्षिण व उत्तर भारतीय में बंटे रहते हैं। उसके बाद हिन्दी व गैर हिन्दी प्रदेशों में बंट जाते हैं। भाषा के आधार से परे हटते ही हम प्रांतों की सीमाओं में सिमट जाते हैं। प्रांतीयता के भीतर भी उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम इलाकों को अलग करने की मांग हमारे भीतर बलवती हो उठती है। इसका ज्वलंत उदा

.....जब रावण बस्यो पड़ोस

हमारे जीवन में परिवारवालों के बाद सबसे महत्वपूर्ण स्थान अगर किसी के लिए होता है तो वे हैं हमारे पड़ोसी, जिनको चाहकर भी हम बदल नहीं सकते। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी शायद पड़ोसियों से परेशान होकर या उनके प्रति अपना अगाध प्रेम प्रदर्शित करने के लिए ही कहा होगा कि आप मित्र तो बदल सकते हैं,शत्रु भी बदले जा सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं बदले जा सकते। पड़ोसियों के मामले में मेरे एक मित्र काफी खुशकिस्मत रहे हैं। घर हो या कार्यस्थल हर जगह उनकी पड़ोस सुखदायी होती है। इस संदर्भ में मेरी किस्मत काफी दगाबाज है। 'जहां गइली खेहो रानी, ऊंहा ना मिले आग पानी’ की कहावत चरितार्थ होती है। वहीं बंजर की स्थिति है। घर में मेरे पड़ोस में बलियाटिकों का जमावड़ा है। दिनदहाड़े हो या घोर अन्हरिया, इनके घरों से दोअर्थी गाने की गंूज सुनाई देती रहती है। सीढिèयों पर चढ़ते-उतरते इनकी मोबाइल फोन पर फुल वॉल्युम में 'लगाई दिहीं ... .. हूक राजाजी’ और 'लगावेलू जब लिपिस्टिक हिलेला आरा डिस्टि्रक्ट’ जैसे गाने बजते रहते हैं। जब धार्मिक मूड में होते हैं तो असमय 'ऊं जय जगदीश हरे’ की धुन भी सुनने को मि

व्हाई दिस कोलावरी डी ?

इक्कीसवीं सदी की अत्याधुनिकता का असर कहिए या पाश्चात्य जगत की छाया, हमारे देश के अति उत्साही युवाओं में कई गलत प्रवृत्तियां घर करती जा रही हैं। जिसकी भाषा समझ में नहीं आती और धुन में मदहोशी भरी हुई है, इस तरह के 'कोलावरी-डी’ बाजार में लोकप्रियता के शिखर पर हैं। छात्र अपने शिक्षकों का आदर नहीं करते बल्कि उनका उपहास उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। किशोर-किशोरियां अपनी उम्र से जल्दी जवान व वयस्क हो रहे हैं। बच्चे, बड़ों की तरह गम्भीर व जिम्मेदाराना व्यवहार करने लगे हैं। इस तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों में समाज में कई तरह के अनदेखे आचरण नमूदार हो रहे हैं। कोलकाता में एक दस वर्ष की बालिका ने ठान लिया है कि वह प्रियंका चोपड़ा की तरह मशहूर अभिनेत्री बनेगी। हावड़ा का सात वर्षीय किशोर सचिन तंेंदुलकर की तरह क्रिकेटर बन अगाध धन कमाना चाहता है। आईएएस या आईपीएस बनने की चाह बहुत कम बच्चों में देखने को मिलती है, लेकिन विजय माल्या सरीखे उद्योगपति की तरह का जीवन जीने की ललक किशोरों में अभी से दिखाई देती है। मुंबई में 15 साल की एक छात्रा ने अपनी कोख में पल रहे बच्चे के बारे में जानकारी देकर समाज को अ