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Showing posts from August, 2008

मुंशी प्रेमचंद भी मेरे आदर्श

मैंने दो लोगों को अपना आदर्श माना है, एक गांधी जी और दूसरे प्रेमचंद। तो मुंशी प्रेमचंद के बारे में ................. प्रेमचंद की भाषा सरल और सजीव और व्यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्यकतानुसार अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का भी प्रयोग है। प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है। गंभीर भावों को व्यक्त करने में गंभीर भाषा और सरल भावों को व्यक्त करने में सरल भाषा को अपनाया गया है। इस कारण भाषा में स्वाभाविक उतार-चढ़ाव आ गया है। प्रेमचंद जी की भाषा पात्रों के अनुकूल है। उनके हिंदू पात्र हिंदी और मुस्लिम पात्र उर्दू बोलते हैं। इसी प्रकार ग्रामीण पात्रों की भाषा ग्रामीण है। और शिक्षितों की भाषा शुद्ध और परिष्कृत भाषा है। प्रेमचंद ने हिंदी और उर्दू दोनों की शैलियों को मिला दिया है। उनकी शैली में जो चुलबुलापन और निखार है वह उर्दू के कारण ही है। प्रेमचंद की शैली की दूसरी विशेषता सरलता और सजीवता है। प्रेमचंद का हिंदी और उर्दू दोनों पर अधिकार था, अतः वे भावों को व्यक्त करने के लिए बड़े सरल और सजीव शब्द ढूँढ़ लेते थे। उनकी शैली में अलंकारिकता का भी

मुंशी प्रेमचंद भी मेरे आदर्श

मैंने दो लोगों को अपना आदर्श माना है, एक गांधी जी और दूसरे प्रेमचंद। तो मुंशी प्रेमचंद के बारे में ................. प्रेमचंद की भाषा सरल और सजीव और व्यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्यकतानुसार अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का भी प्रयोग है। प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है। गंभीर भावों को व्यक्त करने में गंभीर भाषा और सरल भावों को व्यक्त करने में सरल भाषा को अपनाया गया है। इस कारण भाषा में स्वाभाविक उतार-चढ़ाव आ गया है। प्रेमचंद जी की भाषा पात्रों के अनुकूल है। उनके हिंदू पात्र हिंदी और मुस्लिम पात्र उर्दू बोलते हैं। इसी प्रकार ग्रामीण पात्रों की भाषा ग्रामीण है। और शिक्षितों की भाषा शुद्ध और परिष्कृत भाषा है। प्रेमचंद ने हिंदी और उर्दू दोनों की शैलियों को मिला दिया है। उनकी शैली में जो चुलबुलापन और निखार है वह उर्दू के कारण ही है। प्रेमचंद की शैली की दूसरी विशेषता सरलता और सजीवता है। प्रेमचंद का हिंदी और उर्दू दोनों पर अधिकार था, अतः वे भावों को व्यक्त करने के लिए बड़े सरल और सजीव शब्द ढूँढ़ लेते थे। उनकी शैली में अलंकारिकता का भी

एक पहलू यह भी.....................

गत 30 जनवरी को महात्मा गाँधी के अन्तिम ज्ञात (?) अस्थि कलश का विसर्जन किया गया। यह “अंतिम ज्ञात” शब्द कई लोगों को आश्चर्यजनक लगेगा, क्योंकि मानद राष्ट्रपिता के कितने अस्थि-कलश थे या हैं, यह अभी तक सरकार को नहीं पता। कहा जाता है कि एक और अस्थि-कलश बाकी है, जो कनाडा में पाया जाता है। बहरहाल, अस्थि-कलश का विसर्जन बड़े ही समारोहपूर्वक कर दिया गया, लेकिन इस सारे तामझाम के दौरान एक बात और याद आई कि पूना में नाथूराम गोड़से का अस्थि-कलश अभी भी रखा हुआ है, उनकी अन्तिम इच्छा पूरी होने के इन्तजार में। फ़ाँसी दिये जाने से कुछ ही मिनट पहले नाथूराम गोड़से ने अपने भाई दत्तात्रय को हिदायत देते हुए कहा था, कि “मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धु नदी में ही उस दिन प्रवाहित करना जब सिन्धु नदी एक स्वतन्त्र नदी के रूप में भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमें कितने भी वर्ष लग जायें, कितनी ही पीढ़ियाँ जन्म लें, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना…”। नाथूराम गोड़से और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी राख उनके परिवार वालों को नहीं सौंपी गई थी। जेल अधिकारियों ने अस्थियों और राख से भरा मटका रेल्वे पुल के उपर

गांधी उवाच

गांधी उवाच 'गांधीवाद' जैसी कोई चीज नहीं है, और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय छोड़ कर जाना नहीं चाहता। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को जन्म दिया है। मैंने तो सनातन सत्यों को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास भर किया है..... दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कोई नयी बात नहीं है। सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत। मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़े-से-बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया है। ऐसा करते समय मुझसे गलतियां हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है। इस प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक प्रयोगों का रूप ले लिया है। स्वभाव से मैं सत्यवादी हूं, अहिंसक नहीं। जैसा कि किसी जैन मुनि ने एक बार ठीक ही कहा था, मैं अहिंसा का उतना पक्षधर नहीं हूं जितना कि सत्य का और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं और अहिंसा को द्वितीय । क्योंकि, जैसा कि उन मुनि ने कहा, मैं सत्य के लिए अहिंसा की बलि दे सकता हूं। दरअसल, अहिंसा को मैंने सत्य की खोज करते हुए पाया है। अगर गांधीवाद भ्रांति पर आ

गांधी उवाच

गांधी उवाच 'गांधीवाद' जैसी कोई चीज नहीं है, और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय छोड़ कर जाना नहीं चाहता। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को जन्म दिया है। मैंने तो सनातन सत्यों को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास भर किया है..... दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कोई नयी बात नहीं है। सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत। मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़े-से-बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया है। ऐसा करते समय मुझसे गलतियां हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है। इस प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक प्रयोगों का रूप ले लिया है। स्वभाव से मैं सत्यवादी हूं, अहिंसक नहीं। जैसा कि किसी जैन मुनि ने एक बार ठीक ही कहा था, मैं अहिंसा का उतना पक्षधर नहीं हूं जितना कि सत्य का और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं और अहिंसा को द्वितीय । क्योंकि, जैसा कि उन मुनि ने कहा, मैं सत्य के लिए अहिंसा की बलि दे सकता हूं। दरअसल, अहिंसा को मैंने सत्य की खोज करते हुए पाया है। अगर गांधीवाद भ्रांति पर आ

गांधी उवाच

गांधी उवाच 'गांधीवाद' जैसी कोई चीज नहीं है, और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय छोड़ कर जाना नहीं चाहता। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को जन्म दिया है। मैंने तो सनातन सत्यों को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास भर किया है..... दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कोई नयी बात नहीं है। सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत। मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़े-से-बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया है। ऐसा करते समय मुझसे गलतियां हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है। इस प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक प्रयोगों का रूप ले लिया है। स्वभाव से मैं सत्यवादी हूं, अहिंसक नहीं। जैसा कि किसी जैन मुनि ने एक बार ठीक ही कहा था, मैं अहिंसा का उतना पक्षधर नहीं हूं जितना कि सत्य का और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं और अहिंसा को द्वितीय । क्योंकि, जैसा कि उन मुनि ने कहा, मैं सत्य के लिए अहिंसा की बलि दे सकता हूं। दरअसल, अहिंसा को मैंने सत्य की खोज करते हुए पाया है। अगर गांधीवाद भ्रांति पर आ

गांधी हत्या रहस्य

नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे दोनों ने मिलकर फैसला किया था कि महात्मा गांधी को मार दिया जाए। लेकिन दोनों में किसके जहन में यह साजिश आई थी, यह अब तक रहस्य बना हुआ है। महात्मा गांधी की 60वीं पुण्यतिथि पर जारी होने वाली एक किताब में कहा गया है कि यह अब तक रहस्य है कि दोनों में से किसने यह साजिश रची थी। दोनों ने यह फैसला तब किया था जब खबर आई थी कि गांधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने की वकालत की है। गोडसे और आप्टे दोनों ने पूना में एक अखबार के दफ्तर में टेलीप्रिंटर पर यह खबर पढ़ी और फैसला किया कि गांधी की हत्या कर दी जाए। लेकिन यह आज तक पता नहीं चला कि दोनों में से यह साजिश किसने पहले रची क्योंकि इसके बाद गांधी के हत्यारे के रूप में सिर्फ एक ही नाम सामने आता रहा गोडसे। यह लिखा गया है कि मनोहर मलगांवकर की आने वाली किताब के नए संस्करण द मैन हू किल्ड गांधी में। 94 वर्षीय मनोहर ने इस किताब का पहला संस्करण 1978 में प्रकाशित किया गया था। इस नए संस्करण में फोटो और वे दस्तावेज भी शामिल किए गए हैं जिनमें गोडसे और आप्टे के इस हत्या के मिशन पर होने के सबूत हैं जैसे बॉम्बे-दिल्ली एयर टिकट और होटल

महात्मा के अंतिम शब्द हे राम

हे राम ... हे राम ... हे राम महात्मा के विचारों को आज भी प्रासंगिक माना जाता है साठ साल पहले 30 जनवरी, 1948 के ही दिन दिल्ली के बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे महात्मा गाँधी के पैर छूने के लिए झुका.... और जब उठा तो उसने एक के बाद एक तीन गोलियाँ महात्मा के सीने में दाग़ दीं थीं. अब तक माना जाता है कि गोली लगने के बाद बापू 'हे राम!' कहते हुए गिरे थे और यह शब्द उनके पास चल रही उनकी पोती आभा ने सुने थे. लेकिन एक नई पुस्तक 'महात्मा गांधी: ब्रह्मचर्य के प्रयोग' में बापू के अंतिम शब्द ‘हे राम’ पर सवाल उठाया गया है. पत्रकार दयाशंकर शुक्ल सागर की पुस्तक में दावा किया है कि 30 जनवरी, 1948 को गोली लगने के बाद महात्मा गांधी के मुख से निकलने वाले अंतिम शब्द ‘हे राम’ नहीं थे. पुस्तक के अनुसार 30 जनवरी, 1948 को जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को गोली मारी थी तो बापू के सबसे क़रीब उनकी पौत्र वधु मनु गांधी थीं. उन्होंने बापू के होठों से अंतिम शब्द ‘हे रा...’ सुनाई दिया था इसलिए मान लिया गया कि उनके अंतिम शब्द ‘हे राम’ थे. नई पुस्तक में कहा गया है कि मनु के दिमाग में ये शब्द इसलिए आए