जिन्दगी- मौत न बन जाए सम्हालो यारो

जिन्दगी- मौत न बन जाए सम्हालो यारो

· ममता के जुझारूपन से लें सबक
लोकनाथ तिवारी
कोलकाता। दक्षिण कोलकाता के प्रिंस अनवर शाह रोड स्थित साउथ सिटी कॉम्प्लेक्स के पैंतीस मंजिले टॉवर से कूदकर जान देने वाली माँ व दो बेटियों में से एक कSर पर्यावरण प्रेमी थी। पेड़ों की टहनियों को नुकसान पहुंँचने पर हाय तौबा मचाने वाली युवती ने अपनी जीवन लीला समा’ कर ली। आर्थिक तौर पर मजबूत इन मा-बेटियों की आत्महत्या ने एक बार फिर चुलबुली हीरोइन दिव्या भारती, पूर्व मिस इंडिया और अभिनेत्री नफीसा जोसेफ, आइटम गर्ल सिल्क स्मिता, हरियाणा के पूर्व उपमुख्यमंत्री चंद्रमोहन की पूर्व पत्नी फिजा उर्फ अनुराधा बाली और गीतिका शर्मा सरीखी महिलाओं की याद दिला दी। इनकी मौत ने यह साबित कर दिया है कि रंग-बिरंगी और बेवाक जिदगी जीने के बावजूद मानसिक संतुष्टि नहीं होने से अपना ही जीवन बोझ लगने लगता है।

पैसा, शोहरत और आलीशान जीवन जीने वालों की शान ऐसी होती है कि ये बदहाली व गम को अपनी राह बदलने पर मजबूर कर दें। पर अचानक काल के गाल में खुद को धकेलने वाली इन शोहरतमंद महिलाओं की परिणति देखकर अनायास ही यह सवाल उठ खड़ा होता है कि इनके साथ ही ऐसा क्यों हुआ?
एक दार्शनिक के अनुसार, मजदूरी कर, खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत करने वाली किसी महिला को आत्महत्या करते कभी नहीं सुना गया। इस संदर्भ मंंे एक घटना का स्मरण हो आता है, जिसमें पति की मौत के दूसरे दिन ही विधवा काम पर चली जाती है। उसे शोक मनाने तक की फुर्सत नहीं। शोक मनाये या अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए काम करे? बड़े घरों में तो अपने पालतू की मौत पर भी कई दिनों तक शोक का दौर चलता रहता है। जरा सी बात पर मानसिक तनाव और जान देने की नौबत आ जाती है। तड़क-भड़क भरे जीवन में अनायास ही हम ईष्याã व क्षोभ से भर उठते हैं। मानसिक तनाव झेलने वालों के सवालों के जवाब में सुहेल सेठ का एक कॉलम काफी लोकप्रिय हुआ था। मानसिक तनाव ग्रस्त महिलाओं को वे प्राय: ममता बनर्जी के जुझारु व्यक्तित्व से सीख लेने की सलाह देते रहे हैं। जीवन से ऊब चुकीं अबलाओं को ममता सरीखी जुझारू महिलाओं के जीवन से सबक लेना चाहिए। इनको सोचना चाहिए कि इनका जीवन किसी और के काम आ सकता है। अध्यात्म का सहारा भी मानसिक तनाव के लिए रामबाण साबित होता है। भजन-कीर्तन करने वालों को तनाव स्पर्श तक नहीं कर पाता।
प्राय: महिलाओं को ही अवसाद में आत्महत्या करते देखा जाता है। इसके पीछे के कारणों पर चर्चा करते हुए एक मानसिक रोग विशेषज्ञ ने बताया कि संवेदनशील व एकाकी महिलाओं में आत्महत्या के प्रति अधिक रुझान देखा जाता है। मर्दों के प्रभुत्व वाली इस दुनिया में औरत की हैसियत बदबू फैलाती फिजा की लाश जैसी है, जिसके करीब जाने के लिए नाक को कपड़े से ढकना पड़ता है। औरत का अस्तित्व गीतिका के ख्वाबों जैसा है, जिसकी उड़ान कोई और तय करता है।
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपी नेशनल स्टडी ऑफ डेथ (इंडिया 2०1०) के अनुसार, एक पढ़े-लिखे मर्द में आत्महत्या करने की गुंजाइश 46 प्रतिशत होती है, जबकि एक पढ़ी-लिखी महिला के लिए यह बढ़कर 9० प्रतिशत तक पहुँच जाती है। भारत में एक बच्ची के लिए घर से बाहर निकलकर स्कूल तक जाने का रास्ता कई सवालों और तानों को चीरकर निकलता है। कॉलेज पहुँचते-पहुँचते ज्यादातर घरवालों की आजाद-खयाली पस्त हो जाती है। कैटलिस्ट की वर्ष 2००9-1० की रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में पैसे कमाने वाली महिलाएँ 26 प्रतिशत हैं, जबकि शहरों में यह तादाद 14 प्रतिशत पर ठहर जाती है। यानी उच्च शिक्षा के बावजूद, मुट्ठी भर महिलाएँ ही आत्मनिर्भरता की तरफ कदम बढ़ा पाती हैं। बाकी महिलाओं की प्रगतिशीलता चूल्हे के धुएँ में उड़ जाती है।
गीतिका शर्मा की आत्महत्या हो, फिजा की मौत हो या साउथ सिटी में घटी घटना- इन्होंने कई अबूझ सवाल छोड़ दिये हैं। जीवन में सफलता की ऊँचाइयों पर पहुंँचने के बावजूद ऐसा क्या है, जिससे रसूखदार औरतों को भी अपनी जिदगी बोझ लगने लगती है?

 

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