घर की बात घर में ही रहे तो बेहतर

लोकनाथ तिवारी
प्रभात खबर, रांची
विकास की हड़बड़ी में वास्को डि गामा बने नेताजी को हर जगह बस एक ही राग सूझ रहा है. जवाब में जनता भी टेप रिकॉर्डर की तरह तालियां बजा रही है. बीच-बीच में कोरस ध्वनि में हौसला बढ़ाती गूंज भी सुनायी देती है. ऐसे में नेताजी को खुशफहमी होना लाजिमी है. 
 
लेकिन काका सरीखे लोगों को यह तनिक भी नहीं भा रहा. उनका मानना है कि अपने घर की बात घर की चहारदीवारी में ही रहे तो मान-मर्यादा बची रहती है. 
 
हम अपनी गंदगी का ढिंढोरा बाहर पीटने लगेंगे, तो बाहरवाले बस मजा लेंगे. अपने सदाबहार भाषणों से रॉकस्टार को मात देते नेताजी जब कहते हैं कि गंदगी करनेवाले गंदगी करके चले गये, अब उसे साफ करने के लिए उन्होंने भारत में स्वच्छता अभियान चला रखा है, तो कहीं न कहीं वह अपने घर की छवि धूमिल करते ही नजर आते हैं.
 
लोकतांत्रिक देशों में कहां नहीं विरोधियों के खिलाफ जहर उगला जाता है? हर जगह विपक्षी नाक में दम किये रहते हैं, लेकिन उनके नेता बाहर जाकर देश का महिमामंडन ही करते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी उनके नेता हैं, तो उनसे सीख भी लेनी चाहिए. नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व काल में विदेशी धरती पर अटल जी ने सरकार का जिस मजबूती से पक्ष रखा था, वह आज भी राजनीति का आदर्श पाठ है. 
 
लेकिन अपने रॉकस्टार नेताजी तो विदेश में भारत को ‘स्कैम इंडिया’ की संज्ञा देते भी नहीं थकते. अपने देश की छवि  मटियामेट कर अपनी छवि चमकाने की जुगत कहां तक सफल साबित होगी? अगर देश पिछले 60 सालों सेपूरी तरह भ्रष्ट था, इसकी सरकारें सिर्फ गंदगी फैलाने में जुटी हुई थीं, तो निवेशकों को कैसे विश्वास दिलायेंगे कि अब सब कुछ पाक साफ हो गया है? 
 
अगले पांच या दस साल बाद जब नेताजी स्वयं कुर्सी विहीन हो जायेंगे तो क्या होगा. नेताजी को अटल से नहीं तो विदेशी राजनेताओं से सीख लेनी चाहिए. भारत के दौरे पर आये ये नेता न तो अपने विरोधियों के खिलाफ कुछ बोलते हैं और न ही अपने देश की खामियों को गिनाते हैं. सुना है कांग्रेसी नेताओं को भी यह नागवार गुजरा है. अब वे भी विदेशी धरती पर ही नेताजी को काउंटर करने के लिए अपने प्रतिनिधियों को भेजने की योजना बना रहे हैं. 
 
उनका कहना है कि विदेश में आपसी थूकमफजीहत की चर्चा नहीं होनी चाहिए. अगर नेताजी नहीं चेते तो वे जहां-जहां जायेंगे, विपक्ष के लोग भी वहां जाकर उनके बयानों के विरोध में मुखर होंगे. सोचिए ऐसा होगा, तो क्या होगा? 
 
क्या यह एक घटिया परंपरा की शुरुआत नहीं है? काका की चिंता जायज है. नेताजी को भगवान सद्बुद्धि दें. अपने नेताजी को अब यह समझ जाना चाहिए कि वे देश के मुखिया के रूप में अपनी बात रख रहे हैं, न कि चुनावी सभा को संबोधित कर रहे हैं.

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