कर्जखोरों की महिमा के आगे नतमस्तक जनता
लोकनाथ तिवारी (Lokenath Tiwary)
हमारे दादा जी कहा करते थे कर्ज लेकर घी पीने से बेहतर है खाली पेट ग्ाुजर बसर करना। दादा जी की बचपन में दी गयी यह सीख आज भी गांठ बांध कर बैठा हूं, या यूं कहिए कि ग्ाुजर बसर ही कर रहा हूं। वर्तमान में कर्ज लेकर चांदी काटनेवाले लोगों की महिमा देखकर लगता है कि दादा जी की सीख पर अमल कर मैं अपना और अपने परिजनों का भ्ाूत, वर्तमान और भविष्य बिगाड़ रहा हूं। वर्तमान हालत देखकर दादा जी की कही बात के विपरीत कर्जखोर शान से मालामाल जीवन जी रहे हैं। पूछियेगा कि आज सुबह-सुबह दादा जी की सीख का रोना क्यों रो रहा हूं तो इसके पीछे की बात भी सुन ही लीजिए। हाल ही में ऑल इंडिया बैंक एंप्लॉयी एसोसिएशन (एआईबीईए) ने बैंकों से कर्ज लेकर साफ हजम कर जाने वाले 5610 कथित उद्यमियों की जो लिस्ट जारी की है। लोगबाग विजय माल्या को तो पानी पी पीकर कोसते हैं, जोे करीब नौ हजार करोड़ रुपया लेकर विदेश में जा बैठे, लेकिन इस लिस्ट पर नजर डालेंगे तो समझ में आ जायेगा कि उनके जैसे बहुतेरे लोग आज भी हमारे देश में बिंदास घूम रहे हैं। इस लिस्ट से पता चलता है कि भारत में कर्जखोरी बड़े लोगों का शगल बन गया है। यह बीमारी अब महामारी का रूप ले चुकी है। दादा जी होते तो जरूर इन बड़े लोगों को घटिया और निर्लज्ज की संज्ञा देते। विडंबना यह है कि हमारी सरकार और इस विभाग से ज्ाुड़े लोग भी इनका सम्मान करते नजर आते हैं। जब उनसे कर्ज वसूलने की बारी आती है तो बैंक कभी रिजर्व बैंक तो कभी सरकार का मुंह ताकते नजर आते हैं। अंत में यह पैसा किसी न किसी तरीके से जनता की ही जेब से वसूला जाता है। ये कर्जखोर फिल्मी स्टारों सरीखे आलीशान जीवन व्यतीत करते हैं। कर्ज की राशि में से ही एक छोटा अंश निकालकर दान पुण्य भी कमा लेते हैं। फिर उनको बड़े बड़े मंचों पर आसीन किया जाता है। इसी कर्ज की राशि में से राजनीतिक दलों को चंदा देकर ये रसूखवान बन जाते हैं। फिर राजनीति में पदार्पण कर महानुभाव बन जाते हैं। जबकि ऐसे लोगों का स्थान जेल की काल कोठरी होनी चाहिए। जनता की गाढ़ी कमाई को लूट कर विलासिता का जीवन जीनेवाले इन परजीवी अमीर बने कंगालों की मोटी खाल उतार कर भ्ाूस भर देना चाहिए, पर यह केवल शब्दों और लेखनी में ही हो सकता है। वास्तविकता इससे बिलकुल परे है। हालांकि इन कर्जखोरों से निपटने के लिए कानून देश में पहले से ही मौजूद हैं। पिछले ही साल संसद ने इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड पास किया है, जिसमें बैंकों को कर्जखोर कंपनी की संपत्ति बेचने की लिए एक्सपर्ट्स की टीम बनाने का अधिकार दिया गया है, जो 90 दिन के अंदर सारा खेल खत्म कर सकती है। लेकिन इस अधिकार का रास्ता नेशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल (एनसीएलटी) और डेट रिकवरी ट्राइब्यूनल (डीआरटी) से होकर जाता है, जिनके खाली पदों को भरने में सरकार ने कोई रुचि नहीं दिखाई है।
पिछले साल वित्तमंत्री ने संसद में एक सवाल के जवाब में यह भरोसा दिलाया था कि एनसीएलटी और डीआरटी जल्द ही फुल स्पीड में अपना काम शुरू कर देंगी। लेकिन इन संस्थाओं की हालत आज भी ज्यों की त्यों है। कर्ज खाकर डकार भी न लेने वालों में कई उद्योगपतियों के अलावा नेफेड जैसी सरकारी संस्थाएं भी शामिल हैं, जो अकेले बैंकों का सवा दो सौ करोड़ रुपया हजम करके बैठा है। कर्जे की वसूली का सिस्टम दुरुस्त करने के बजाय सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का प्राइवेटाइजेशन करने का मन बना रही है। एआईबीईए ने सरकार का इरादा भांपकर ही 58 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खाकर बैठे इन डिफाल्टरों के नाम सार्वजनिक किए हैं। इस मामले में सरकार का ढुलमुल रवैया यह शक पैदा करता है कि कहीं उसके अपने ही कुछ तार इन विलफुल डिफाल्टरों के साथ तो नहीं जुड़े हैं। मैं तो कहूंगा कि तार ही नहीं ज्ाुड़े बल्कि इन डिफाल्टरों से सरकार के वरिष्ठतम लोगों का चोली दामन का साथ है। यदि ऐसा नहीं होता तो इनके खिलाफ थोड़ी कठोरता बरतनेवाले और राहत न देनेवाले भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को विदायी की राह नहीं तकनी पड़ती।
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