मरने के जुगाड़ में जीने की मजबूरी
।। लोकनाथ तिवारी।। (प्रभात खबर, रांची) बड़े भले आदमी थे. जाते-जाते भी किसी को परेशान नहीं किया. भगवान ऐसी मौत सबको दे. बेचारे सोय-सोये ही चले गये. वह भी छुट्टीवाले दिन, सुबह. किसी को परेशान नहीं होना पड़ा. मरनेवाले की अनायास ही प्रशंसा करना हमें सिखाया गया है. शायद यही कारण था कि सुबह-सुबह अपने शतायु पड़ोसी की मौत के बाद हर आने-जाने वाला इसी तरह अपना शोक जता रहा था. अचानक मुङो अपना ख्याल आ गया. पहली बात तो यह कि एक हिंदी पत्रकार शतायु कैसे हो सकता है. फिर अपने परिजन व पड़ोसियों को सहूलियत हो, ऐसी मौत कैसे आये. इसे लेकर उधेड़बुन में फंस गया. सोचता हूं, अभी ही कौन से मजे से जी रहा हूं. रोज मरने से अचानक मौत की कल्पना उतनी बुरी भी नहीं लगती. सोचता हूं कि छुट्टी के दिन मरने पर कैसा रहेगा. अंतिम यात्र में सभी शामिल हो सकेंगे. फिर, डर भी लगता है कि उनकी छुट्टी बरबाद होगी, मन ही मन गालियां बकेंगे. फिर सोचता हूं, हम पत्रकारों को छुट्टी मिलती भी कहां है. शाम को मरने पर फजीहत ही होगी. कोई पूछने भी नहीं आयेगा. शाम को तो पत्रकारों की शादी भी नहीं होती. आधी रात के बाद शादी का मुहूर्त...