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गांधी उवाच.............

वे ईसाई हैं, इससे क्या हिन्दुस्तानी नहीं रहे ? और परदेशी बन गये ? कितने ही नवयुवक शुरु में निर्दोष होते हुए भी झूठी शरम के कारण बुराई में फँस जाते होगे । उस आस्था का कोई मूल्य नहीं जिसे आचरण में न लाया जा सके। अहिंसा एक विज्ञान है। विज्ञान के शब्दकोश में 'असफलता' का कोई स्थान नहीं। सार्थक कला रचनाकार की प्रसन्नता, समाधान और पवित्रता की गवाह होती है। एक सच्चे कलाकार के लिए सिर्फ वही चेहरा सुंदर होता है जो बाहरी दिखावे से परे, आत्मा की सुंदरता से चमकता है। मनुष्य अक्सर सत्य का सौंदर्य देखने में असफल रहता है, सामान्य व्यक्ति इससे दूर भागता है और इसमें निहित सौंदर्य के प्रति अंधा बना रहता है। चरित्र और शैक्षणिक सुविधाएँ ही वह पूँजी है जो मातापिता अपने संतान में समान रूप से स्थानांतरित कर सकते हैं। विश्व के सारे महान धर्म मानवजाति की समानता, भाईचारे और सहिष्णुता का संदेश देते हैं। अधिकारों की प्राप्ति का मूल स्रोत कर्तव्य है। सच्ची अहिंसा मृत्युशैया पर भी मुस्कराती रहेगी। 'अहिंसा' ही वह एकमात्र शक्ति है जिससे हम शत्रु को अपना मित्र बना सकते हैं और उसके प्रेमपात्र बन सकते हैं

मुंशी प्रेमचंद भी मेरे आदर्श

मैंने दो लोगों को अपना आदर्श माना है, एक गांधी जी और दूसरे प्रेमचंद। तो मुंशी प्रेमचंद के बारे में ................. प्रेमचंद की भाषा सरल और सजीव और व्यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्यकतानुसार अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का भी प्रयोग है। प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है। गंभीर भावों को व्यक्त करने में गंभीर भाषा और सरल भावों को व्यक्त करने में सरल भाषा को अपनाया गया है। इस कारण भाषा में स्वाभाविक उतार-चढ़ाव आ गया है। प्रेमचंद जी की भाषा पात्रों के अनुकूल है। उनके हिंदू पात्र हिंदी और मुस्लिम पात्र उर्दू बोलते हैं। इसी प्रकार ग्रामीण पात्रों की भाषा ग्रामीण है। और शिक्षितों की भाषा शुद्ध और परिष्कृत भाषा है। प्रेमचंद ने हिंदी और उर्दू दोनों की शैलियों को मिला दिया है। उनकी शैली में जो चुलबुलापन और निखार है वह उर्दू के कारण ही है। प्रेमचंद की शैली की दूसरी विशेषता सरलता और सजीवता है। प्रेमचंद का हिंदी और उर्दू दोनों पर अधिकार था, अतः वे भावों को व्यक्त करने के लिए बड़े सरल और सजीव शब्द ढूँढ़ लेते थे। उनकी शैली में अलंकारिकता का भी

मुंशी प्रेमचंद भी मेरे आदर्श

मैंने दो लोगों को अपना आदर्श माना है, एक गांधी जी और दूसरे प्रेमचंद। तो मुंशी प्रेमचंद के बारे में ................. प्रेमचंद की भाषा सरल और सजीव और व्यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्यकतानुसार अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का भी प्रयोग है। प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है। गंभीर भावों को व्यक्त करने में गंभीर भाषा और सरल भावों को व्यक्त करने में सरल भाषा को अपनाया गया है। इस कारण भाषा में स्वाभाविक उतार-चढ़ाव आ गया है। प्रेमचंद जी की भाषा पात्रों के अनुकूल है। उनके हिंदू पात्र हिंदी और मुस्लिम पात्र उर्दू बोलते हैं। इसी प्रकार ग्रामीण पात्रों की भाषा ग्रामीण है। और शिक्षितों की भाषा शुद्ध और परिष्कृत भाषा है। प्रेमचंद ने हिंदी और उर्दू दोनों की शैलियों को मिला दिया है। उनकी शैली में जो चुलबुलापन और निखार है वह उर्दू के कारण ही है। प्रेमचंद की शैली की दूसरी विशेषता सरलता और सजीवता है। प्रेमचंद का हिंदी और उर्दू दोनों पर अधिकार था, अतः वे भावों को व्यक्त करने के लिए बड़े सरल और सजीव शब्द ढूँढ़ लेते थे। उनकी शैली में अलंकारिकता का भी

एक पहलू यह भी.....................

गत 30 जनवरी को महात्मा गाँधी के अन्तिम ज्ञात (?) अस्थि कलश का विसर्जन किया गया। यह “अंतिम ज्ञात” शब्द कई लोगों को आश्चर्यजनक लगेगा, क्योंकि मानद राष्ट्रपिता के कितने अस्थि-कलश थे या हैं, यह अभी तक सरकार को नहीं पता। कहा जाता है कि एक और अस्थि-कलश बाकी है, जो कनाडा में पाया जाता है। बहरहाल, अस्थि-कलश का विसर्जन बड़े ही समारोहपूर्वक कर दिया गया, लेकिन इस सारे तामझाम के दौरान एक बात और याद आई कि पूना में नाथूराम गोड़से का अस्थि-कलश अभी भी रखा हुआ है, उनकी अन्तिम इच्छा पूरी होने के इन्तजार में। फ़ाँसी दिये जाने से कुछ ही मिनट पहले नाथूराम गोड़से ने अपने भाई दत्तात्रय को हिदायत देते हुए कहा था, कि “मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धु नदी में ही उस दिन प्रवाहित करना जब सिन्धु नदी एक स्वतन्त्र नदी के रूप में भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमें कितने भी वर्ष लग जायें, कितनी ही पीढ़ियाँ जन्म लें, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना…”। नाथूराम गोड़से और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी राख उनके परिवार वालों को नहीं सौंपी गई थी। जेल अधिकारियों ने अस्थियों और राख से भरा मटका रेल्वे पुल के उपर

गांधी उवाच

गांधी उवाच 'गांधीवाद' जैसी कोई चीज नहीं है, और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय छोड़ कर जाना नहीं चाहता। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को जन्म दिया है। मैंने तो सनातन सत्यों को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास भर किया है..... दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कोई नयी बात नहीं है। सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत। मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़े-से-बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया है। ऐसा करते समय मुझसे गलतियां हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है। इस प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक प्रयोगों का रूप ले लिया है। स्वभाव से मैं सत्यवादी हूं, अहिंसक नहीं। जैसा कि किसी जैन मुनि ने एक बार ठीक ही कहा था, मैं अहिंसा का उतना पक्षधर नहीं हूं जितना कि सत्य का और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं और अहिंसा को द्वितीय । क्योंकि, जैसा कि उन मुनि ने कहा, मैं सत्य के लिए अहिंसा की बलि दे सकता हूं। दरअसल, अहिंसा को मैंने सत्य की खोज करते हुए पाया है। अगर गांधीवाद भ्रांति पर आ

गांधी उवाच

गांधी उवाच 'गांधीवाद' जैसी कोई चीज नहीं है, और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय छोड़ कर जाना नहीं चाहता। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को जन्म दिया है। मैंने तो सनातन सत्यों को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास भर किया है..... दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कोई नयी बात नहीं है। सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत। मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़े-से-बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया है। ऐसा करते समय मुझसे गलतियां हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है। इस प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक प्रयोगों का रूप ले लिया है। स्वभाव से मैं सत्यवादी हूं, अहिंसक नहीं। जैसा कि किसी जैन मुनि ने एक बार ठीक ही कहा था, मैं अहिंसा का उतना पक्षधर नहीं हूं जितना कि सत्य का और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं और अहिंसा को द्वितीय । क्योंकि, जैसा कि उन मुनि ने कहा, मैं सत्य के लिए अहिंसा की बलि दे सकता हूं। दरअसल, अहिंसा को मैंने सत्य की खोज करते हुए पाया है। अगर गांधीवाद भ्रांति पर आ

गांधी उवाच

गांधी उवाच 'गांधीवाद' जैसी कोई चीज नहीं है, और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय छोड़ कर जाना नहीं चाहता। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को जन्म दिया है। मैंने तो सनातन सत्यों को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास भर किया है..... दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कोई नयी बात नहीं है। सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत। मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़े-से-बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया है। ऐसा करते समय मुझसे गलतियां हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है। इस प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक प्रयोगों का रूप ले लिया है। स्वभाव से मैं सत्यवादी हूं, अहिंसक नहीं। जैसा कि किसी जैन मुनि ने एक बार ठीक ही कहा था, मैं अहिंसा का उतना पक्षधर नहीं हूं जितना कि सत्य का और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं और अहिंसा को द्वितीय । क्योंकि, जैसा कि उन मुनि ने कहा, मैं सत्य के लिए अहिंसा की बलि दे सकता हूं। दरअसल, अहिंसा को मैंने सत्य की खोज करते हुए पाया है। अगर गांधीवाद भ्रांति पर आ