गांधी उवाच

गांधी उवाच
'गांधीवाद' जैसी कोई चीज नहीं है, और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय छोड़ कर जाना नहीं चाहता। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को जन्म दिया है। मैंने तो सनातन सत्यों को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास भर किया है.....
दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कोई नयी बात नहीं है। सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत। मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़े-से-बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया है। ऐसा करते समय मुझसे गलतियां हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है। इस प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक प्रयोगों का रूप ले लिया है।
स्वभाव से मैं सत्यवादी हूं, अहिंसक नहीं। जैसा कि किसी जैन मुनि ने एक बार ठीक ही कहा था, मैं अहिंसा का उतना पक्षधर नहीं हूं जितना कि सत्य का और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं और अहिंसा को द्वितीय । क्योंकि, जैसा कि उन मुनि ने कहा, मैं सत्य के लिए अहिंसा की बलि दे सकता हूं। दरअसल, अहिंसा को मैंने सत्य की खोज करते हुए पाया है।
अगर गांधीवाद भ्रांति पर आधारित है तो उसका नष्ट हो जाना ही उचित है। सत्य और अहिंसा कभी नष्ट नहीं होंगे किंतु यदि गांधीवाद किसी पंथ-संप्रदाय का पर्याय है तो उसका नष्ट हो जाना ही उचित है। यदि मुझे अपनी मृत्यु के बाद पता चले कि मैं जिन आदर्शों के लिए जिया, उनका कोई पंथ-संप्रदाय बन गया है तो मुझे गहरी वेदना होगी....।
कोई यह न कहे कि वह गांधी का अनुगामी है। अपना अनुगमन मैं स्वयं करूं, यही काफी है। मुझे पता है, मैं अपना कितना अपूर्ण अनुगामी हूं, क्योंकि मैं अपनी आस्थाओं के अनुरूप जी नहीं पाता। आप मेरे अनुगामी नहीं हैं बल्कि सहपाठी हैं, सहयात्री हैं, सहखोजी हैं और सहकर्मी हैं।
मैंने भारत के सामने आत्मत्याग के प्राचीन नियम को प्रस्तुत करने का जोखिम उठाया है। वस्तुतः सत्याग्रह और उसकी शाखा-प्रशाखा-असहयोग और सविनय प्रतिकार, और कुछ नहीं हैं, सिवाय आत्मतप एवं कष्ट सहन के नियमों के नये नामों के।
वे ऋषि न्यूटन से भी अधिक प्रतिभाशाली थे जिन्होंने हिंसा के बीच रहते हुए अहिंसा के नियम की खोज की। वे वेलिंग्टन से भी बड़े योद्धा थे कि अत्रों के प्रयोग के ज्ञाता होने पर भी जिन्होंने उनकी व्यर्थता को पहचाना और परेशान दुनिया को सिखाया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में निश्चित है।
अपनी गत्यात्मक स्थिति में, अहिंसा का अर्थ है विवेकपूर्वक कष्ट-सहन। इसका अर्थ अत्याचारी की इच्छा के समक्ष कायर समर्पण नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है अत्याचारी की इच्छा के विरुद्ध अपनी पूरी आत्मिक शक्ति से उठ खड़े होना। इस नियम पर चलते हुए कोई आदमी अकेला ही अपने सम्मान, अपने धर्म और अपनी आत्मा की रक्षा के लिए किसी अन्यायी साम्राज्य की समूची शक्ति को चुनौती दे सकता है और उस साम्राज्य के पतन अथवा नवजीवन की नींव रख सकता है।
अतः मैं भारत से अहिंसा के मार्ग पर चलने का अनुरोध इसलिए नहीं कर रहा कि वह कमजोर है। मैं चाहता हूं कि वह अपने बल और अपनी शक्ति के प्रति सचेत रहते हुए अहिंसा का आचरण करे। भारत को अपने बल को पहचानने के लिए हथियारों के प्रशिक्षण की जरूरत नहीं है। हमें इसकी जरूरत इसलिए महसूस होती है कि हम अपने को केवल हाड़-मांस का ढेर समझते हैं।
मैं चाहता हूं कि भारत को इसका बोध हो कि उसकी एक आत्मा है जो अविनाशी है और जो प्रत्येक भौतिक दुर्बलता से उपर उठकर विजयी हो सकती है और समस्त संसार के भौतिक बल का चुनौती दे सकती है।
मेरा जीवन-लक्ष्य केवल भारतवासियों में बंधुत्व की स्थापना करना नहीं है। मेरा लक्ष्य केवल भारत की आजादी नहीं है, यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि आज मेरा लगभग संपूर्ण जीवन और पूरा समय इसी में लगा है। किंतु, भारत की आजादी के जरिए, मैं विश्वबंधुत्व के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता हूं।
मेरी देशभक्ति कोई व्यावर्तक वस्तु नहीं है। यह सर्वसमावेशी है और मैं उस देशभक्ति को त्याग दूंगा जो अन्य राष्टों को व्यथित अथवा शोषित करके अपनी प्रबलता सिद्ध करने का प्रयास करे। देशभक्ति के मेरे विचार की यदि निरपवाद रूप से समस्त मानवता के अधिकाधिक कल्याण के साथ संगति न हो तो वह बेकार है।
यही नहीं, मेरा धर्म और धर्म से व्युत्पन्न मेरी देशभक्ति समस्त जीवन को परिव्याप्त करती है। मैं केवल मानवों के साथ ही तादात्म्य अथवा बंधुत्व स्थापित करना नहीं चाहता, अपितु पृथ्वी पर रेंगने वाले कीड़े-मकोड़ों के साथ भी तादात्म्य अथवा बंधुत्व स्थापित करना चाहता हूं.... क्योंकि हम यह मानते हैं कि हम सब उसी ईश्वर की संतान हैं और इसलिए, जीवन जिस रूप में भी दिखाई देता है, तत्वतः एक ही होना चाहिए।
मुझे अपने जीवन-लक्ष्य में इतनी गहरी आस्था है कि यदि उसकी प्राप्ति में सफलता मिलती है-और मिलना अवश्यंभावी है- तो इतिहास में यह बात दर्ज होगी कि यह आंदोलन विश्व के सभी लोगों को एक सूत्र में पिरोने के लिए था जो एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि एक समष्टि के अंग होंगे।
विदेश भ्रमण
पता नहीं क्यों, मुझे युरोप और अमरीका जाने में भय लगता है। इसलिए नहीं कि मुझे अपने देशवासियों की अपेक्षा उनका अविश्वास अधिक है, पर इसलिए कि मुझे स्वयं पर विश्वास नहीं है। मुझे स्वास्थ्य सुधारने अथवा देशभ्रमण के लिए पश्चिम की यात्रा करने की कोई कामना नहीं है। मुझे सार्वजनिक भाषण देने की भी कामना नहीं है। मुझे महिमामंडित किया जाए, इसे मैं कतई पसंद नहीं करता। मेरे ख्याल से मुझमें सार्वजनिक भाषण देने और सार्वजनिक प्रदर्शनों में भाग लेने के भीषण तनावों को झेलने लायक शारीरिक क्षमता अब शायद ही फिर से आ पाये।
यदि ईश्वर कभी मुझे पश्चिम की यात्रा पर भेजे तो मैं वहां की जनता के हृदयों में पैठने, युवावर्ग से शांतिपूर्वक बातचीत करने और अपने सदृश लोगों से - वे लोग जो सत्य के अलावा बाकी किसी भी कीमत पर शांति चाहते हैं - मिलने को सौभाग्य प्राप्त करने के लिए जाना चाहूंगा।
लेकिन मैं अनुभव करता हूं कि अभी मेरे पास पश्चिम को व्यक्तिगत रूप से देने के लिए कोई संदेश नहीं है। मेरा विश्वास है कि मेरा संदेश सार्वभौम है, पर मैं अभी यह अनुभव करता हूं कि मैं अपने ही देश में काम करके इसे ज्यादा अच्छी तरह पहुंचा सकता हूं। यदि मैं भारत में प्रत्यक्ष सफलता प्रदर्शित कर सकूं तो मेरा संदेश पूरी तरह लोगों तक पहुंच जाएगा।
यदि मैं इस नतीजे पर पहुंचता हूं कि भारत के लिए मेरे संदेश का कोई उपयोग नहीं है तो उसके प्रति आस्था होने पर भी मुझे अन्य श्रोताओं तक उसे पहुंचाने के लिए कहीं बाहर जाने की फिव् नहीं करनी चाहिए। अगर मैं बाहर जाउंगा तो मुझे पहले इस बात का विश्वास होना चाहिए, चाहे सबकी तसल्ली के लायक मैं उसका प्रमाण न दे सकूं, कि मेरा संदेश भारत में ग्रहण किया जा रहा है, भले ही उसकी गति बिलकुल धीमी हो।

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