डीएनए में घुस गया है डिवाइड एंड रूल
डीएनए में घुस गया है डिवाइड एंड रूल
।। लोकनाथ तिवारी।।
( प्रभात खबर, रांची)
तेलंगाना को भारत का 29वां राज्य बनाने के पीछे की मनसा क्या है, इसकी विषद व्याख्या करना कहीं से समझदारी नहीं कही जा सकती. बांटो और राज करो (डिवाइड एंड रूल) की नीति हमारे डीएनए में बसी हुई है. यह कब से और कहां से अपनायी गयी, इसकी व्याख्या से भी कोई लाभ नहीं है. हमारी फितरत में तो सदैव बंटवारे का भूत सवार रहता है. दक्षिण व उत्तर भारतीय में बंटे हम कभी हिंदी तो कभी गैर हिंदी प्रदेशों में बंट जाते हैं. भाषा व प्रांतों की सीमाओं में सिमटी हमारी मानसिकता संकीर्णता की सारी हदें लांघती नजर आती है. एक ही प्रांत में अलग-अलग जिलों के रहने वाले भले ही पड़ोसी क्यों न हो, अपने जिले का बखान करते समय दूसरे जिले के लोगों के बारे में सरेआम अभद्र शब्दों का प्रयोग करते नहीं अघाते.
दिवंगत लोकगायक बलेसर ने तो इसी को आधार बना कर गीत भी गढ़ लिया था. रसवा भरल बा पोरे पोर, जिला . . वाली, उनके लोकप्रिय गानों में से एक था.
एक ही जिले में ब्लॉकों, जवार व गांवों में बंटे हम यहीं नहीं थमते. बचपन में कई बार काका की जुबान से सुना है, अरे भाई ई दक्खिन टोलहन के बात छोड़, इहनी के बात अउरी जात के ठीक ना होला.’
टोला की बात तो दूर एक ही घर-परिवार में बड़का, मंझला व छोटका के बीच विभाजन के मुद्दे पर महाभारत सरीखी गाथा तैयार हो जाती हैं. भाई-भाई के बीच के बंटवारों की जड़ पर आधारित हजारों मामले अदालतों में विचाराधीन हैं. पति-पत्नी के बीच के विभाजन पर तो वकीलों की जमात जिंदा है. बांटने व विभक्त होने की हमारी मानसिकता हम अपने शरीर पर भी लागू करते हैं. अपने ही शरीर के विभिन्न अंगों की देखभाल करने में हम न्याय नहीं करते. थोबड़े को संवारने में हमारे हाथ, पैर अक्सर उपेक्षा के शिकार होते हैं. अगर बिना बिस्तर के ही सोना पड़े तो हम अपने हाथों को सिर के नीचे लगाने में हिचकते नहीं, जैसे हाथ हमारे न होकर किसी और के हों.
अपनी आदत तो सुधरने से रही, लेकिन आम चुनावों से ठीक पहले तेलंगाना के 17 सांसदों के लालच में यूपीए सरकार ने तेलंगाना को राज्य का दरजा देने के लिए जो कदम उठाया है, वह नेकनीयती पर आधारित नहीं कहा जा सकता. इसके पीछे राजनीतिक स्वार्थ निहित है. इस घोषणा के साथ ही देश के कई हिस्सों में 21 नये राज्यों की मांग जोर पकड़ने लगी है. बंगाल में गोरखालैंड की मांग करने वाले जीजेएम अध्यक्ष बिमल गुरूंग ने तो ममता सरकार को धमकी भी दे दी है कि अगर पहाड़ में कुछ होता है, तो इसके लिए पश्चिम बंगाल सरकार जिम्मेदार होगी. इसी तरह अन्य क्षेत्रों से भी देर-सबेर आवाज उठेगी ही. अब लाख टके का सवाल है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में अलग राज्यों की मांग की सुलगती चिंगारी को कौन और कैसे बुझायेगा?
( प्रभात खबर, रांची)
तेलंगाना को भारत का 29वां राज्य बनाने के पीछे की मनसा क्या है, इसकी विषद व्याख्या करना कहीं से समझदारी नहीं कही जा सकती. बांटो और राज करो (डिवाइड एंड रूल) की नीति हमारे डीएनए में बसी हुई है. यह कब से और कहां से अपनायी गयी, इसकी व्याख्या से भी कोई लाभ नहीं है. हमारी फितरत में तो सदैव बंटवारे का भूत सवार रहता है. दक्षिण व उत्तर भारतीय में बंटे हम कभी हिंदी तो कभी गैर हिंदी प्रदेशों में बंट जाते हैं. भाषा व प्रांतों की सीमाओं में सिमटी हमारी मानसिकता संकीर्णता की सारी हदें लांघती नजर आती है. एक ही प्रांत में अलग-अलग जिलों के रहने वाले भले ही पड़ोसी क्यों न हो, अपने जिले का बखान करते समय दूसरे जिले के लोगों के बारे में सरेआम अभद्र शब्दों का प्रयोग करते नहीं अघाते.
दिवंगत लोकगायक बलेसर ने तो इसी को आधार बना कर गीत भी गढ़ लिया था. रसवा भरल बा पोरे पोर, जिला . . वाली, उनके लोकप्रिय गानों में से एक था.
एक ही जिले में ब्लॉकों, जवार व गांवों में बंटे हम यहीं नहीं थमते. बचपन में कई बार काका की जुबान से सुना है, अरे भाई ई दक्खिन टोलहन के बात छोड़, इहनी के बात अउरी जात के ठीक ना होला.’
टोला की बात तो दूर एक ही घर-परिवार में बड़का, मंझला व छोटका के बीच विभाजन के मुद्दे पर महाभारत सरीखी गाथा तैयार हो जाती हैं. भाई-भाई के बीच के बंटवारों की जड़ पर आधारित हजारों मामले अदालतों में विचाराधीन हैं. पति-पत्नी के बीच के विभाजन पर तो वकीलों की जमात जिंदा है. बांटने व विभक्त होने की हमारी मानसिकता हम अपने शरीर पर भी लागू करते हैं. अपने ही शरीर के विभिन्न अंगों की देखभाल करने में हम न्याय नहीं करते. थोबड़े को संवारने में हमारे हाथ, पैर अक्सर उपेक्षा के शिकार होते हैं. अगर बिना बिस्तर के ही सोना पड़े तो हम अपने हाथों को सिर के नीचे लगाने में हिचकते नहीं, जैसे हाथ हमारे न होकर किसी और के हों.
अपनी आदत तो सुधरने से रही, लेकिन आम चुनावों से ठीक पहले तेलंगाना के 17 सांसदों के लालच में यूपीए सरकार ने तेलंगाना को राज्य का दरजा देने के लिए जो कदम उठाया है, वह नेकनीयती पर आधारित नहीं कहा जा सकता. इसके पीछे राजनीतिक स्वार्थ निहित है. इस घोषणा के साथ ही देश के कई हिस्सों में 21 नये राज्यों की मांग जोर पकड़ने लगी है. बंगाल में गोरखालैंड की मांग करने वाले जीजेएम अध्यक्ष बिमल गुरूंग ने तो ममता सरकार को धमकी भी दे दी है कि अगर पहाड़ में कुछ होता है, तो इसके लिए पश्चिम बंगाल सरकार जिम्मेदार होगी. इसी तरह अन्य क्षेत्रों से भी देर-सबेर आवाज उठेगी ही. अब लाख टके का सवाल है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में अलग राज्यों की मांग की सुलगती चिंगारी को कौन और कैसे बुझायेगा?
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