Its taken from Prabhat Khabar दस आदमी के पास बहुत और नब्बे के पास अभाव


आज टेक्नोलॉजी ने समाज को तेजी से बदला है. इसी नयी संस्कृति की देन है, बिना शादी के लिव-इन रिलेशनशिप का जन्म. 13 नवंबर 2014 के दिल्ली के एक बड़े अखबार में पढ़ा कि अदालती आंकड़ों के अनुसार तीन साल में महज दिल्ली में लिव इन रिलेशनशिप में 12 गुणा से अधिक हिंसक घटनाओं में बढ़ोतरी हुई. यह हिंसा, मार-पीट, जानलेवा हमलों से लेकर हत्या तक है.
 
लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के बाद बलात्कार के आरोपों की बाढ़ आ गयी है. सिर्फ दिल्ली में, वर्ष 2013 में लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे लोगों ने बलात्कार के 2049 मामले दर्ज कराये. बेंगलुरू में बलात्कार की बढ़ती घटनाओं (तीन वर्ष की बच्ची से भी बलात्कार) का कोई निदान कानून-व्यवस्था या राजनीति नहीं निकाल पा रहे. इसलिए 11 नवंबर 2014 को टाइम्स ऑफ इंडिया की बड़ी खबर थी कि प्री-यूनिवर्सिटी के पहले की बेंगलुरू की शिक्षण संस्थाओं ने सुरक्षा के लिए यह तय किया है कि हर लड़की संस्थान को यह सूचना देगी कि वह कब, कहां, किससे बातें कर रही है. वह कब घर से निकलती है, कब घर पहुंचती है और कब कैंपस छोड़ती है?
  
दरअसल, समाज गिर चुका है. किसी गड्ढे के सबसे नीचे की सतह को वह स्पर्श कर चुका है. अब इसको कहीं जाना नहीं है. वह समाप्त है.  क्या उस समाज को एक स्वस्थ समाज कहेंगे, जिसमें दस आदमी के पास बहुत है और नब्बे के पास अभाव है? आपने जिस घटना का रेफरेंस दिया, वह घटना कोई आइसोलेटेड  (अकेली) घटना नहीं है. वैसी घटनाएं, समाज में रोज हो रही हैं. कई घटनाएं अभी रिपोर्टेड नहीं हैं. घर में जो लोग आते हैं, काम करनेवाली वगैरह, वे बताती हैं कि हमारे साथ ऐसा-ऐसा हुआ. ऐसी खबरें अखबारों में नहीं पढ़ने को मिलती हैं. 
 
इसलिए ऐसी घटनाओं की जो वास्तविक संख्या है, वह सामने आयी संख्या से बहुत अधिक है. समाज का चरित्र ऐसा बन चुका है कि अब उसका कुछ बिगड़ना नहीं है. क्योंकि जो चीज है ही नहीं, उसका क्या बिगड़ेगा? वह समाप्त हो गया है. मानवीयता खत्म हो चुकी है. अब उसके आगे खत्म होने का कोई सवाल नहीं है. इस तरह की बातें मैं किसी निराशावादी दृष्टिकोण से नहीं कह रहा हूं. अच्छी-अच्छी बातें लोग बोलते हैं. आध्यात्मिक बातें करते हैं. बड़े-बड़े मंचों से बड़ी-बड़ी बातें सुनायी देती हैं. लेकिन जरा उनका जीवन देखिए? आप बताइए कि क्या आज कोई शंकराचार्य या अन्य गुरु आम आदमी को निर्भयता का उपदेश दे सकते हैं? क्यों? 
 
क्योंकि वो तो खुद आज बहुत सुरक्षागार्ड वगैरह से घिरे हैं. क्या वो अपरिग्रह का उपदेश दे सकते हैं कि संग्रह न करो? जितने भी उच्च मूल्यों की बात है, क्या वो उसका ईमानदारी से उपदेश दे सकते हैं? क्या वो वह मॉॅरल अथॉरिटी (नैतिक अधिकारी) है? मैं यह नहीं कहता कि साधु को कुटिया में रहना चाहिए या कौपीन पहन कर ही रहना चाहिए. हम साधारण शर्ट-पैंट पहने साधु की भी कल्पना कर सकते हैं. हमारे जमाने में ही कृष्णमूर्ति हुए. वे पैंट-शर्ट पहनते थे. इसलिए पहनावे वगैरह से हम बहुत आसक्त नहीं हैं.
 
कृष्णजी या अन्य लोगों का जीवन भी बड़ा आधुनिक था. इस देश में रमण महर्षि भी थे. वह स्वयं कौपीन पहनते थे, पर जो सामान्य भोजन वगैरह है, वह सबके साथ बैठ कर करते थे. अब वहां से देखिए कि उस परंपरा में कितनी गिरावट है? जब आप पूछते हैं कि क्यों ऐसा है, तो इसका कारण है अतिशय भोग. इंद्रिय-सुख-भोग और पॉवरफुल होना ही सबसे बड़ी चीज रह गयी है. सभी जगह हमलोग उसी का महत्व देखते हैं. 
 
हमारा ड्रेस कैसा है? हमारे देश का प्रधानमंत्री कैसा कुर्ता-पायजामा पहनते हैं? उनके हाथ में कौन-सी घड़ी है? उनके मोजे कैसे हैं? उनका चश्मा कैसा है? जूते कैसे हैं? इत्यादि-इत्यादि. यह दिखता है. मीडिया इन्हें दिखाता है. विजिबल है. हमारे फिल्म स्टारों का जीवन कैसा है? या हमारे अन्य नेतागण हैं, वे कैसे हैं? प्रभाव छोड़ना होगा, तो आपको कुछ अलग करना होगा? अतिशय भोग के कारण, अतिशय इंद्रिय-सुख-भोग के कारण मनुष्य का जो मन है, वह बड़ा सतही हो गया है. छिछला हो गया है. 
 
छिछलेपन के कारण उसमें सद्-असद् विवेचनी बुद्धि नहीं रही कि वह सत्य और असत्य को अलग कर सके. उसमें वह विवेक नहीं रहा, जिससे वह जान सके कि करनीय और अकरनीय क्या है? स्वधर्म क्या है? वगैरह. क्योंकि वह गहराई खोजती है. छापाखाना वगैरह के आविष्कार ने इसमें बहुत मदद की. हजारों हजार वर्ष की कष्टप्रद तपस्या के बाद प्राप्त ज्ञान को, अनुभव को कुछेक सौ रुपये खर्च करने के बाद किताबों के रूप में लोग आसानी से पा जाते हैं. आमजन को ज्ञान पाने के लिए आज गहराई में उतरना नहीं पड़ता, उन दुर्लभ अनुभवों के लिए. वो इंटेलेक्चुअली (बौद्धिक) उसको पाकर (रियलाइज करके) प्रसन्न हो जाता है. हमने रमण महर्षि को पढ़ा. गीता पढ़ी. रामायण पढ़ी. रामकृष्ण परमहंस पढ़ा. हमने अन्य धर्मो के महापुरुषों को पढ़ा. हमने वह समझ भी लिया. पर हम कर क्या रहे हैं? भाई-भतीजावाद कर रहे हैं. दूसरे को ठग कर पैसा कमा रहे हैं. हम जनता की तकलीफ की कीमत पर धनवान हो रहे हैं. 
 
मुझे राजनीति से ज्यादा सरोकार नहीं है, लेकिन जो अभी एक तूफान आया था, हुदहुद, उसका एक प्रसंग है. चंद्रबाबू नायडू ने देश की सबसे बड़ी मोबाइल कंपनी के मालिक को क्रोध से डांटा. कहा, चुप रहिए आप. पांच किलोवाट का एक जेनरेटर सेट अपने मोबाइल टावर में नहीं रख सकते आप. सिर्फ पैसा कमाना चाहते हैं. इस देश की जनता से आपको कोई सरोकार नहीं है. बुरी तरह, सरेआम प्रेस कॉन्फ्रेंस में डांटा कि आपके असहयोग के कारण हमारा सेवा-कार्य बाधित हुआ. आपका सहयोग मिलता, कम्युनिकेशन होता, तो हम आसानी से पीड़ितों तक पहुंच पाते. हम उनकी तकलीफ दूर कर पाते. मेरी यह बात समझने की कोशिशि करो. आराम से खाना खाकर, जनवरी की धूप में बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठ कर हम पढ़ रहे हैं ‘रमण महर्षि से बातचीत’. पन्ने पलट रहे हैं. उपनिषद पढ़ रहे हैं. हम समझ भी रहे हैं. लेकिन हमारा जीवन या समाज का चरित्र कैसा है? आपके सामने है.
 
एकदम आराम से मामूली खर्च कर उसे ज्ञान मिल गया. उसे थोड़ी भी गहराई में जाने की जरूरत नहीं पड़ी. आज हम कहते हैं कि आई-क्यू लो हो गया है. इमोशन (भावना) खत्म हो गया है. विपरीत परिस्थिति में आज का मानव सही चिंतन नहीं कर पाता. लड़खड़ा जाता है. नर्वस ब्रेक डाउन हो जाता है. ऐसा क्यों होता है? सबसे अधिक आत्महत्या करने की वजह भी यही है. बहुत जल्द प्रभावित हो जाता है. मोबाइल नहीं मिला, तो सुसाइड (आत्महत्या कर ली). नब्बे फीसदी अंक नहीं मिले, तो सुसाइड कर लिया. पिताजी ने डांटा, तो सुसाइड कर लिया. आप गौर से देखेंगे, तो ये सारी चीजें अत्यंत सतही सुखभोग (इंद्रिय सुख) के कारण हैं.
 
ऊपर से इंटरनेट के माध्यम से सारा ज्ञान आपके पास है. उसके लिए आपको थोड़ा भी कष्ट नहीं सहना पड़ा. आपको जरा भी तपस्या नहीं करनी पड़ी. खाना- पीना नहीं छोड़ना पड़ा. मुफलिसी नहीं करनी पड़ी. थोड़ा भी निग्रह नहीं करना पड़ा. जीवन में दिक्कतें क्या होती हैं, आपने नहीं जाना. तितिक्षा नहीं है जीवन में. साधु के जीवन में भी नहीं. मजबूरी में तितिक्षा कोई कर रहा है, तो है. ये अतिशय इंद्रिय-भोग से बना सतही, छिछला मन और वो किताब और इंटरनेट से प्राप्त ज्ञान. बड़ा अद्भुत संयोग हुआ, समाज गिरता गया, गिरता गया. तलहटी को छू गया. अब और नीचे जाने की जगह नहीं है.
 
पर रास्ता क्या है?
 
सिम्पल (आसान) है. बड़ा सरल है. अतिशय इंद्रिय-सुख पशुओं का है. उनके पास मन नहीं है. हम तो मन वाले हैं. हम मनुष्य हैं. हमसे उम्मीद की जाती है कि हम अतिशय सुखभोग में डूबेंगे नहीं. समाज को उधर नहीं ले जायेंगे. आज इंटरनेट ने गांव-गांव में इंद्रिय-सुख की आग जगा दी है. और तृप्ति के साधन नहीं हैं, इसलिए तीन साल की बच्ची के साथ रेप होता है. चूंकि यह प्रश्न सरल है, इसलिए इसका जवाब भी सरल है. रास्ता है कि मनुष्य को पशुता के आधार से मुक्त कर ईश्वरीय आधार देना होगा. मनुष्य को आज पशुता का आधार मिला है. पाशविक वृत्ति के आधार पर मनुष्य खड़ा है. ऐसा नहीं है कि अच्छी वृत्तियां नहीं दिखतीं. 
 
वह दिखती हैं, लेकिन यह जो मनुष्य में पाशविक वृत्ति है, आसुरी वृत्ति है, सुखभोग की वृत्ति है, आज उसकी प्रबलता है. बहुलता है. मेजॉरिटी है. यह सब वृत्तियों पर भारी है. यही जीवन को शासित कर रहा है. जीवन का मार्गदर्शन कर रहा है. इसलिए मनुष्य को इस प्रवृत्ति से बाहर निकालने का उपाय है कि उसे इस पाशविकता के आधार से बाहर निकाल कर ईश्वरीय आधार पर लाना होगा. यह सभी स्तर पर जरूरी है. इसलिए विश्व धर्म आवश्यक है, जिससे कि उसका विश्व-प्रेम, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में ऐक्शन (व्यवहार) में आ जाए. शासन में, धर्म में.. सभी जगह. इसलिए उन कॉन्फ्लिक्ट्स (विवादों) का रिजॉल्यूशन होना चाहिए, जो धार्मिक-आध्यात्मिक-सांप्रदायिक संगठनों के माध्यम से उठते हैं. इसलिए इसका जवाब सीधा है कि गड्ढे में गिरे व्यक्ति को निकाल कर ईश्वरीय आधार देना होगा.
 
आज जीवन, लगता है कि महज एक दौड़ भर है. इससे अधिक इसका कुछ अर्थ नहीं है. बिलकुल है. वह सुख भोग और पॉवर के पीछे भाग रहा है. उसे तो यह भी पता नहीं है कि किसके पीछे भाग रहा है. इस बार जब मैं कोलकाता से लौटा तो मुझे बताया गया कि फलां साधु का उत्पाद बाजार में बिकने लगा है, जिसमें उक्त साधु की तसवीर भी रहती है. अब तो वो व्यापारी हो गये, बिजनेसमैन हो गये. वे कैसे मार्गदर्शन करेंगे इंसान का? समाज अब उनमें बिजनेस मोटिव देखता है.
समाज का मार्गदर्शन करने के केंद्र कहां हैं?
 
नहीं रह गये हैं. इसीलिए जीवन को आप दौड़ (रेस) कह रहे हैं, और उस दौड़ का भी पता नहीं है कि यह किधर हो रही है? मैं एक व्यस्त आदमी का उदाहरण देता हूं. मान लीजिए कि उसने अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया, बड़ा आदमी बनाया. बच्चे पढ़े-लिखे, बड़े हुए. उनकी भी बड़ी नौकरी लगी. अब भारतवर्ष में परिवार का जो कॉनसेप्ट (अवधारणा) है, उसे आप पूरा कर सकते हैं? अपने बूढ़े मां-बाप के पास बच्चे रह सकते हैं? और न रहने के कितने जस्टिफिकेशंस (कारण) हैं, इनकी भी आप कल्पना कर सकते हैं. बच्चा अपने वृद्ध मां-बाप की सेवा क्यों करेगा? किसलिए करेगा? क्या समाज उसे प्रेरणा देता है? नहीं! कहीं-कहीं रेयरली (विरले) देखने को मिलता है कि कुछ बच्चे अपने माता-पिता के साथ कुछ दिन रहते हैं. लेकिन अन्य सभी जगह स्थितियां ऐसी नहीं हैं. ऐसे संगठन खड़े हो गये हैं, जो उन वृद्धों के लिए गैस-सिलिंडर ला देते हैं. उनके फोन बिल चुका देते हैं. उनके बीमा के इंस्टॉलमेंट जमा करवा देते हैं. घर के सामान मंगवा देते हैं. तरह-तरह के काम करते हैं. ऐसी बहुत सारी वेबसाइट और संगठन हैं. मौलिक रूप से जो रोग है, ये सब उसी के परिणाम हैं. लक्ष्य क्या है? रुपया कमाना. अब रुपया तो चंचल है, वह भाग रहा है. आपके ही
 
अखबार में नंद चतुर्वेदी जी ने लिखा कि सारे गुण लक्ष्मी के अधीन हो गये. इसलिए जीवन का कोई अर्थ कहां है? क्या अर्थ है? जीवन का उद्देश्य क्या है, और उस उद्देश्य की परिपूर्ति कैसे होगी, इसके लिए आज कौन से प्रयास हो रहे हैं?
 
हमारे शास्त्र, जीवन को किस रूप में बताते हैं? क्या है जीवन?
 
मैंने आपको बताया कि हमारे यहां इसी लाइन पर काम हुआ. अध्यात्म के क्षेत्र में हमारे यहां रिसर्च हुए. हमारे यहां जीवन का गहराई से अध्ययन किया गया. कहा गया कि गहराई से सोचो कि धरती पर क्यों आये हो? क्या लेने आये हो? क्या ले जाओगे यहां से? क्या छोड़ जाओगे यहां? इन सब विषयों पर हमारे यहां गंभीर चिंतन हुआ है.
 
तरह-तरह की बातें खड़ी हुई. हमें कहीं बाहर नहीं जाना पड़ा है. घर में बैठे ऋषियों-मुनियों की सारी बातें, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, इन सबकी बातें, बाहर के भी कुछ लोग, जैसे ईसाई, मुसलिम या पारसी की बातें, हमें घर बैठे मिल गयीं. लेकिन हम तो बहुत पहले से, हजारों वर्षो से कह रहे थे कि हर जगह ईश्वर का वास है. ‘ईशावास्यमिदं सर्वम्..’’ भगवान हर जगह है. इसलिए तुम अपना अंश लेकर संतुष्ट हो जाओ. दूसरे का अंश मत लो. यह चोरी है. मार्क्‍स ने बहुत बाद में कहा कि ‘फ्रॉम ईच वन एकॉर्डिग टू हिज कैपिसिटी, टू ईच वन एकॉर्डिग टू हिज नीड्स’. हमारे यहां इसी विषय पर चिंतन हुआ है. इसलिए जीवन का लक्ष्य क्या है, जीवन में क्या करना है, जीवन एक रेस भर नहीं है, इत्यादि पर हमें बहुत ज्यादा जानने की जरूरत नहीं है.
 
अगर सावधानी से देखा जाए तो बहुत स्पष्ट है. हम अपने को जानने, पहचानने, सबको प्यार करने, समझने-बूझने, अनुभव करने आये हैं. हम अनुभव कर रहे हैं. क्या अनुभव का यही परिचय हम देते हैं कि हम जान रहे हैं कि हमारा पर्यावरण बिगड़ रहा है, हमारे अतिशय सुखभोग से. फिर भी असहाय-चुप हैं. अपने अतिशय सुखभोग पर लगाम नहीं लगा रहे हैं. हम समझ रहे हैं कि हवाई जहाज से जितना प्रदूषण फैलता है, उतना किसी और चीज से नहीं फैलता. फिर भी हम हवाई यात्र कर रहे हैं. बेवजह. आप आसानी से रेल से यात्र कर सकते हैं. बहुत जरूरी काम-जरूरत है, तो आप जाइए. हम जानते हुए उस जानकारी का पालन नहीं करते. उसके अनुसार चलते नहीं है. इसलिए आज परेशानी इस बात की है कि ज्ञान है हमारे पास, लेकिन यह नहीं पता है कि यह होगा कैसे? कैसे कर पायेंगे?
 
देखिए कि दुर्योधन अकेला था, जिसने कृष्ण से कहा कि हे केशव! हम जानते हैं कि धर्म क्या है? लेकिन मेरा उधर झुकाव नहीं है, प्रवृत्ति नहीं है. हम जानते हैं कि अधर्म क्या है? लेकिन उससे मुझे मुक्ति नहीं मिल रही है. मैं उससे हट नही पा रहा हूं. कोई है, मेरे भीतर, जो मुझे चला रहा है. वो जैसा कहता है, मैं वैसा करता हूं. आप जब निष्पक्ष होकर, तटस्थ होकर अध्ययन करेंगे, तो पायेंगे कि आज का युग दुर्योधनों से भरा हुआ है. उसकी बहुलता है. उसे पता है कि धर्म क्या है, फिर भी वह उसका पालन नहीं करता. उसको मालूम है कि अधर्म क्या है, फिर भी वह उससे अलग नहीं हटता. तो यह मान कर चलिए कि दुर्योधन का जो हश्र हुआ, वही पूरे समाज का होगा. उसको तो हटाना पड़ेगा ही. इसलिए आज समस्या ज्ञान की नहीं है. समस्या है, उस मनुष्य की, जो पशुता के जीवन-दर्शन पर चल रहा है. उसे वहां से हटा क र चेतना के आधार पर, ईश्वरीय आधार पर खड़ा करना ही रास्ता है. आस्था के द्वीप तभी दिखायी देंगे, जब यह समाज खोजेगा. लोग हैं, लेकिन चुपचाप बैठे हैं. हम इसके लिए कोई संगठन भी नहीं खोल सकते हैं. उस रास्ते पर चल नहीं सकते हैं, जिस रास्ते पर चल कर यह समाज बरबाद हुआ है. हम इंतजार कर रहे हैं, और मुझे पूरा विश्वास है कि अगर मैं सही हूं और मेरे जैसे लोग सही हैं, तो भगवान उनकी मदद करेगा ही करेगा.
 
हमारे यहां की पुरानी मान्यता थी, जिसमें यह माना गया था कि जीवन, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का पर्याय है. आज क्या दिखता है?
जीवन में ये चारों बातें होनी चाहिए, लेकिन अब इन चारों में से कुछ भी नहीं है. सिर्फ और सिर्फ भोग है. भोग-परायण जीवन है.
 
आज जो अध्यात्म के रास्ते पर भी चलता है, वह भी वातानुकूलित कमरे में ध्यान करना चाहता है. वह भी चाहता है कि मेरे आराम का एक स्तर (लेवल ऑफ कंफर्ट) रहे. इसमें हर्ज नहीं है, लेकिन क्या वह आराम का स्तर पूरे विश्व को दिया जा सकता है. साधु के लिए यह प्रश्न है, गृहस्थ के लिए नहीं है. साधु को उतना ही लेना चाहिए, जो पूरे विश्व को आसानी से उपलब्ध हो सके. इससे अधिक एक साधु को नहीं लेना चाहिए.
 
मशीन का प्रभाव आज व्यापक है. गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में कहा था कि मनुष्य मशीन के अधीन न हो. आज हम पूरी तरह मशीन के अधीन हैं. मोबाइल, कंप्यूटर वगैरह. बच्चे पैदा होते ही कंप्यूटर से जुड़ जा रहे हैं, और भीड़ भरे समाज में भी वे अकेलापन महसूस करते हैं?
 
आज तो मनुष्य खुद ही मशीन हो गया है. मशीन का प्रभाव मनुष्य पर इतना गहरा पड़ा है कि आज मनुष्य ही मशीन हो गया है। कोई भी मशीन किसी आधार, किसी फिलॉसफी (दर्शन) पर चलती है. जैसे सिलाई मशीन, सिलाई करने के लिए है. मोटरसाइकिल है, तो वह बैठ कर चलने के लिए है. इसी तरह हर मशीन का एक आधार है कि वह क्या करेगी. मनुष्य अगर मशीन बन गया है, तो उसका आधार क्या है? उसकी फिलॉसफी (दर्शन) क्या है? वह क्यों मशीन बना है? 
 
मशीन के प्रभाव में हम खुद भी मशीन हो गये हैं. हम खुद को एक रिसोर्स मान बैठे हैं. ह्यूमन रिसोर्स यानी मानव-संसाधन कहते हैं खुद को. लेकिन हम क्या मशीन के आधार को बता पा रहे हैं? हम क्या डिसप्ले (प्रदर्शन) कर पा रहे हैं? नहीं. तो इससे यह प्रमाणित होता है कि हम जो मशीन बने हैं, वह सिर्फ सुखभोग के लिए बने हैं. इसलिए सिर्फ सुखभोग के लिए जो मशीन बनी है, वह मशीन टूट जायेगी. बिखर जायेगी. कौन-सी चीज इसे पकड़ कर रखेगी? मशीन का समाज तो नहीं बनता.
 
उसे तो कनेक्टिंग पावर चाहिए. होल्डिंग पावर चाहिए. कौन-सी चीज इस मशीन वाले समाज को होल्ड कर या पकड़ कर रखेगी? पहले इसे ईश्वरीय आधार होल्ड कर रखता था. हमारे, आपके, इन सबके बीच भगवान है. हम सबको आपस में जोड़ कर रखने वाले भगवान हैं. वह भी ईश्वर का एक रूप है. उससे द्वेष नहीं करना, उससे घृणा नहीं करना, उसे मारना नहीं. यह हमारे यहां रहा है. हमारे यहां मिथिला भाषा में गाली नहीं है. अगर आप अत्यंत बिगड़ जाते हैं, तो कहते हैं ‘बड बुइर छी’ यानी ‘बहुत बेवकूफ हैं, आप!’. यह सबसे खराब गाली मानी गयी है. 
 
क्यों? क्योंकि हमें जो बुद्धि मिली है, विवेक मिला है, तो हमसे उम्मीद की गयी है कि हम उसे जीवन में उतारेंगे. खैर, मेरा कहना है कि मशीन से बने समाज को कौन-सी चीज जोड़ेगी? क्या सिर्फ भोग ही सबकुछ है? अगर ऐसा है, तो यह सब टूट जायेगा. सारी सभ्यताओं का इतिहास अतिशय भोग में डूब कर खत्म हो जाना रहा है. आज तक जितनी भी सभ्यताएं इस संसार में हुई हैं, उन सबका नाश अतिशय भोग में हुआ है.
 
आप इतिहास के पन्ने पलट लें, इसके प्रमाण मिल जायेंगे. चाहे वह हड़प्पा हो, मोहनजोदड़ो हो या रोमन वगैरह जो भी हों. यूनान, मिस्र रोमां सब मिट गये जहां से/ कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी. क्‍यों? क्योंकि तब हमारे यहां रहनेवाले, इस भारतवर्ष में रहनेवालों में भोग नहीं था. अब ये भी भोगी हो गये हैं, तो इन्हें डूबने से बचायेगा कौन?
 
आप बार-बार कहते रहे हैं कि पहले के हमारे ऋषि-मुनियों ने जो पाया, उसे सिर्फ सौ रुपये की किताब खरीद कर पा लेने से कुछ नहीं होगा. उसके पीछे एक लंबी साधना-तपस्या रही है. उस परंपरा  के बारे में जरा विस्तार से बताइए कि कैसे उन लोगों ने पाया और वो पाना कैसे एक अलग था, जिसने हमारी सभ्यता-संस्कृति को हजारों वर्षो तक बचाये रखा.
 
ये लोग स्तंभ हैं, हमारे समाज के. राजा-महाराजा जैसे बड़े-बड़े लोग उनके पास जाते रहे हैं. इतिहास पलट कर देखिए. विश्वामित्र हैं, वशिष्ठ हैं, आंगिरस जैसे बड़े-बड़े ऋषि हैं. उनके पास तत्कालीन राजा-महाराजा वगैरह जाते रहते थे. सिर्फ ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि रोजमर्रा के जीवन के लिए परामर्श लेने के लिए भी जाते थे. बेटा-बेटी का लालन-पालन कैसे होना चाहिए? प्रजा की सेवा-देखभाल कैसे होनी चाहिए? दुनिया का भला कैसे करना चाहिए? ये सारी बातें उनसे सीखते थे. ऋषि उस पर रोशनी डालते थे. इसके लिए वो स्वयं कष्ट उठाते रहे हैं, जिससे वो दूसरों की मदद कर सकें. अपने लिए नहीं कष्ट उठाया. निज प्राप्ति के लिए नहीं उठाया. उपनिषद् में कहानी है. एक बार अनावृष्टि हो गयी. खेती नहीं हुई. अकाल पड़ गया. ऋषि लोग यज्ञ करते हैं, तो अन्न नहीं मिला. एक दिन विश्वामित्र स्नान करके लौट रहे थे, तो एक मरा हुआ कुत्ता मिला. उसकी पूंछ पकड़ कर घसीटते हुए विश्वामित्र चलते हैं. कहानी यह है कि देवता लोग आकाश में खड़े होकर देखते हैं कि ये क्या कर रहे हैं? विश्वामित्र कहते हैं कि आज इसी के मांस से मैं हवन करूंगा. क्या करूंगा! इस बार इंद्र ने वर्षा नहीं की, तो फसल नहीं हुई. हम करेंगे क्या? तब देवताओं को लज्ज आयी, इंद्र को डांटा-फटकारा. यह परंपरा या यह कहानी क्या बताती है? ऋषि की अथॉरिटी. ज्ञानी की अथॉरिटी. उस मनुष्य की अथॉरिटी, जिसके पीछे त्याग है, तपस्या है. यह अथॉरिटी, अपने जीवन में त्याग और तपस्या से आती है. तब उसकी बात ईश्वर भी सुनते हैं.
 
इररेलिवेंट (अप्रासंगिक) बनते-बनते वैसे लोग अब दरकिनार हो गये. अर्थहीन हो गये. अब समाज पैसेवालों को, शक्तिशाली लोगों को पूजने लगा. मैंने अभी-अभी तुम्हें बताया न कि हमारा-तुम्हारा संबंध स्नेह-प्रेम का है. हम क्यों तुम्हें बुलायेंगे. तुम अपनी मर्जी से आओगे. इसी में तुम्हारा प्रेम, मुहब्बत, स्नेह है. मेरा बुलाना शोभा नहीं देता. इसलिए यह जो परंपरा देश में बनी थी, वह तो अब अप्रासंगिक हो गयी है. मैं यह नहीं कहता कि उसी को रीक्रिएट (दोबारा पैदा) कर दिया जाये. आप अपने ढंग से कुछ कर दीजिए. कोई अच्छी परंपरा कायम कीजिए. कुर्सी को बहुत महत्व नहीं दीजिए, पावर को महत्व नहीं दीजिए, बल्कि त्याग और तपस्या को महत्व दीजिए. रावण क्या है? पावर का, ऐश्वर्य का मिलन है रावण. शिव-भक्त है. महाज्ञानी है. तपस्वी है. लेकिन यह सबकुछ क्यों कर रहा है? शक्तिशाली होने के लिए. ईश्वरीय होने के लिए. रावण करता क्या है? इसी वृत्ति का पोषण तो करता है. रावण एक था, उसकी लंका भी छोटी थी. लेकिन आज का विश्व बड़ा है. आज पूरा देश रावण है. खुद समृद्ध होना चाहता है, बड़ा होना चाहता है, किसी भी कीमत पर. इस बात की फिक्र नहीं है कि दूसरी जगह लोग भूखे मर रहे हैं.
 
टन का टन गेहूं समुद्र में गिरा दिया, लेकिन गरीबों को नहीं दिया- यह इतिहास है. मक्खन, सेब जैसी चीजें मछलियों को खिला देते हैं, समुद्र में डाल देते हैं, बाजार भाव बनाये रखने के लिए. बहुत ज्यादा फसल हो जाती है तो कीमत मेनटेन रखने के लिए गिरा देते हैं. प्राइस गिरना नहीं चाहिए. प्राइस गिरा तो सब खत्म हो जाता है. आज ईमानदारी और सद्गुण तो आपको शक्तिशाली नहीं बनाते. जिसके पास विश्वप्रेम है, वह शक्तिशाली क्यों होना चाहेगा? अगर मेरे साथ दस व्यक्ति हों तो मैं शक्तिशाली क्यों बनना चाहूंगा? मेरा सभी के साथ स्नेह-प्रेम है, सबके साथ उठना-बैठना, खाना-पीना है. शक्तिशाली बनने की कामना लेकर, इन सबमें कोई एक विशिष्ट हो जाए, यह तो गलत है.
 
इसलिए जिसके पास प्रेम है उसे शक्ति की जरूरत नहीं है.
 
आज किसी त्यागी के पीछे, कोई जयप्रकाश या गांधी आ जाए या विनोबा आ जाए तो उसके पीछे, खड़ा होने के लिए समाज तैयार नहीं दिखता है!
 
गांधी को अब भी प्रासंगिक होना बाकी है. रमण महर्षि को प्रासंगिक होना या रामकृष्ण परमहंस को प्रासंगिक होना शेष है. विवेकानंद को प्रासंगिक होना बाकी है. इनकी बातें जैसी की तैसी रखी हैं. इसलिए पहले हमें वह माहौल तैयार करना होगा, मिट्टी तैयार करनी होगी, उसमें खाद डालनी होगा, फिर पौधा लगाना होगा और छांव देनी होगी, ताकि धूप से राहत मिल सके. परिस्थिति तो यही है कि ये सब चीजें समाज में रिजेक्ट हो चुकी हैं. गांधी जयंती मनाने से, नोटों पर गांधी की तसवीर छाप देने से, हम गांधी के विचारों के पोषक नहीं हो जाते. गांधी के विचारों को इंप्लीमेंट करना इस देश में अब भी बाकी है. 
 
विनोबा जी के अंतिम दिनों की बात है. इंदिरा जी की कैबिनेट के एक बड़े मंत्री पवनार आश्रम में थे. मैं और बाबूजी (पं रामनन्दन मिश्र) वहां खड़े थे. बाबूजी ने निर्णय ले लिया था कि अब उस स्थान को छोड़ देंगे. उन मंत्री ने बाबूजी से हाथ जोड़ कर कहा कि आप कहेंगे तो विनोबा जी आहार ले लेंगे. तब विनोबा जी ने आहार लेना छोड़ दिया था. बाबूजी ने दो टूक शब्दों में कहा कि मैं क्यों कहने जाऊं? आप लोगों ने एक भी बात सुनी है विनोबा की? मैं क्यों कहने जाऊं, कितना प्रासंगिक रखा है आपने विनोबा को? उन्होंने पूछा, कौन-सी बात? बाबूजी ने तुरंत विनोबा की तीन-चार बातें गिना दीं और पूछा कि आपने उनकी इन सब बातों को सुना है? और आप चापलूसी में कह रहे हैं कि मैं कह दूंगा तो विनोबा जी आहार ले लेंगे. इसलिए मैं कह रहा हूं कि इनका प्रासंगिक होना बाकी है. हमलोगों को कौन पूछता है? कोई नहीं पूछता है.
 
मैं बार-बार कहता हूं कि विचारों की शुद्धता की गारंटी रहेगी, ऐसा भगवान ने हम लोगों पर भरोसा किया है. चाहे कोई महत्व दे या न दे, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. क्यों? अगर हम महत्व को देखने जायेंगे तो समझौता करेंगे. तब मेरी बात सुनने के लिये जो दस-बारह आदमी आयेंगे वे सब फेक (नकली) होंगे. उनकी मेरी बातों में जरा भी रुचि नहीं होगी. मैंने कॉम्प्रोमाइज किया इसलिए आये. एक प्रभाव बना दिया है. टीवी पर आ रहे हैं, हर समय प्रवचन दे रहे हैं. लेकिन समाज पर क्या इसका असर पड़ रहा है?
 
यह तो मेलोड्रामा ही हुआ न! अभिनय है. लेकिन भगवान ने अगर भरोसा किया है, तो मुझे महत्व नहीं भी मिलेगा तो भी मैं अच्छी बातों के सहारे अपने जीवन को काट दूंगा. ठीक है, वक्त आयेगा, क्योंकि यह बात ध्रुव सत्य है कि आज जो हालात हैं उससे धरती बचेगी नहीं. जिस रास्ते पर लोग चल रहे हैं, उससे कोई बचता नहीं है.
 
समाज के कपड़े के चिथड़े-चिथड़े उड़ गये. समाज का वह परिधान ही नष्ट हो गया है. जिन दो द्वीपों की चर्चा कल के अखबार में नंद चतुर्वेदी ने की है, उसके आधार पर हर इंसान द्वीप है. कहां आत्मीयता है? कहां अपनापन है? कहां एक-दूसरे के प्रति त्याग की वृत्ति है? कहां किस दृष्टिकोण से हम मनुष्य हैं? शक्तिशाली होने की तलाश में हम सबकुछ फेंकते चले गये. कोई पूछेगा नहीं. हम चाहेंगे कि मेरा कुछ महत्व हो, तो हमें धन-संपत्ति अजिर्त करनी होगी. कुछ आशीर्वाद देना होगा. कोई चमत्कार दिखाना होगा. लेकिन क्या उससे समाज बदलेगा? उससे समाज का कोई भला होगा? आज तो चारों तरफ अंधकार ही अंधकार है.

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फूलन देवी : The Bandit Queen---पार्ट-3