बंदूक और चुनावी दंगल


बंदूक और चुनावी दंगल
लोकनाथ तिवारी
भारत में च्ाुनावी चर्चा हो और हिंसा की बात न की जाये तो चर्चा अध्ाूरी मानी जायेगी। हर बार की तरह इस बार भी च्ाुनाव की तैयारियों में बम व बंदूक का बोलबाला रहने की आशंका है। हालांकि च्ाुनाव आयोग की च्ाुस्ती से च्ाुनावी हिंसा की वारदातों में उल्लेखनीय कमी आयी है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में चुनावी हिंसा की तस्वीर बदली है। साल 1978 में बिहार में गांव-स्तर के चुनावों में 500 लोगों की जानें गई थीं। 23 साल बाद ऐसे ही चुनाव में 100 लोगों को जान गंवानी पड़ी। नई दिल्ली के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एक अध्ययन के अनुसार, ’मतदान के दिन वोटरों को मताधिकार से वंचित कराने के लिए होने वाली चुनावी हिंसा कम हो रही है। बूथ कब्जा करने और मतदान केंद्र के आसपास गोलीबारी की घटनाएं कम हो रही हैं, मगर अदृश्य या रिपोर्ट दर्ज न कराए जानेवाली हिंसक घटनाएं बढ़ रही हैं। इन घटनाओं में चुनाव के बाद की हिंसा उल्लेखनीय है’। इन पर अंकुश के लिए चुनाव आयोग ने देश भर के पुलिस थानों को हथियारों के लिए गाइडलाइन जारी की हैं। इसमें गैरकानूनी हथियारों की खोज व जब्ती, हथियारों व गोला-बारूद के स्वदेशी निर्माण पर रोक, हथियारों के गैर-पंजीकृत निर्माताओं पर छापेमारी, अपराधियों की गिरफ्तारी, 144 सीआरपीसी के तहत निषेधाज्ञा लागू करना व लाइसेंसी हथियारों को लाना-ले जाना प्रतिबंधित करना शामिल है।
बंगाल में लाइसेंसी बंदूकों की मांग बहुत घट गयी है। इसके पीछे राज्य सरकार की कठोर नीति जिम्मेवार है। हालांकि गैरलाइसेंसी व अवैध हथियारों के मामले में बंगाल भी यूपी और बिहार से पीछे नहीं है। हाल ही में दक्षिण 24 परगना जिले के जयनगर में हथियार कारखाना पकड़ा गया था। यहां बिहार के मुंगेर व गया सहित अन्य जगहों के एक्सपर्ट अपना ठिकाना बनाये थे। यहां मुंगेर से बड़े पैमाने पर हथियार बनाने के कलपुर्जे लाए जाते हैं। भारत में कितनी बंदूकें हैं, इसका आधिकारिक आंकड़ा नहीं है। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक दिवंगत एन एस सक्सेना ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि ब्रिटेन या जापान में जितने हथियार हैं, अकेले मुरादाबाद जिले में उससे कहीं ज्यादा कानूनी व गैरकानूनी हथियार हैं। 2013 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में दाखिल एक सरकारी हलफनामे में भी माना गया था कि देश के आधे भाग में करीब 20 लाख लाइसेंसी हथियार हैं। वह हलफनामा कुल 671 जिलों में से 324 जिलों के आंकड़ों पर आधारित था। इंडिया आर्म्ड वॉयलेंस एसेसमेंट इंस्टीट्यूट (भारतीय सशस्त्र हिंसा आकलन संस्था) ने 2011 में एक सर्वे किया था, जिसमें कहा गया था कि भारत में चार करोड़ लोगों के पास हथियार हैं, जिनमें से सिर्फ 15 फीसदी ही लाइसेंसी हैं। इस सर्वे में यह भी बताया गया था कि हथियारों से होने वाली मौत के मामले में शीर्ष पांच शहरों में से चार (मेरठ, इलाहाबाद, वाराणसी, कानपुर) उत्तर प्रदेश में ही हैं। सर्वे के आधार पर ससेक्स यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज ने आकलन किया था कि उत्तर प्रदेश और बिहार में, खासतौर से दबंग और बाहुबली, हथियारों का इस्तेमाल अपना रुतबा बरकरार रखने के लिए करते हैं और शहरी व कस्बाई इलाकों में ये राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को धमकाने में उपयोग किए जाते हैं।  
अपने राजनीतिक विरोधियों को निबटाने की बात हो या फिर वोटरों को डराने-धमकाने की मंशा, देश के अधिकांश हिस्सों में बंदूक संस्कृति ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। इस संस्कृति के खिलाफ कहीं से कोई आवाज नहीं उठ रही। देश के कई हिस्सों में स्थानीय और राज्य स्तर के चुनावों में हिंसा होती रही है। इसमें गोलीबारी, आगजनी, सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान और जीत के जश्‍न में फायरिंग शामिल है। अप्रैल, 2014 के ही आम चुनाव से एक दिन पूर्व छत्तीसगढ़ में माओवादियों की कथित गोलियों से 12 लोगों की जान चली गई थी तो बीते साल ही असम में पंचायत चुनावों के दौरान हुई हिंसा में 13 लोगों की मौत हो गई थी। चुनाव के दौरान इस बंदूक संस्कृति पर नेशनल पॉलिसी एकेडमी के पूर्व निदेशक शंकर सेन कहते हैं कि देश के कुछ हिस्सों में राजनेता बाहुबलियों पर निर्भर होते हैं और बाहुबली बंदूकों पर। वे मतदाताओं को डराने के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं।
कई लोगों का मानना है कि यह व्यर्थ की रस्साकशी है। कानूनी रूप से बंदूक मालिकों के अधिकारों की वकालत करने वाले समूह नेशनल एसोसिएशन फॉर गन राइट्स इंडिया के महासचिव रक्षित शर्मा कहते हैं, ’सरकारी संस्थाएं हर बार बंदूकों के कानूनी मालिकों पर शिकंजा कसती हैं। मगर इसमें उन लोगों की जान आफत में आ जाती है, जिन्हें वाकई अपनी रक्षा के लिए बंदूकों की जरूरत है’। एक धारणा है कि प्रतिबंधों की वजह से ही गैरकानूनी हथियारों को बढ़ावा मिलता है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, जनवरी 2012 से लेकर जनवरी  2015 के बीच देश भर में 36,000 से ज्यादा गैरकानूनी हथियार जब्त किए गए थे। इनमें से 47 फीसदी लोग उत्तर प्रदेश से हैं। साल 2009 - 2013 के बीच देश भर में बंदूकों से हुई 15,000 से ज्यादा मौतों में करीब 90 फीसदी में अवैध हथियारों का इस्तेमाल हुआ था। शामली के एसपी विजय भूषण ने पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश के कांधला और कैराना कस्बों से पिछले चार महीने में 400 निर्माणाधीन और 100 पूरी तरह तैयार अवैध हथियार जब्त किए हैं। वह कहते हैं, ’उत्तर प्रदेश में यमुना किनारे के सैकड़ों शहरों में लोगों का यह पारिवारिक पेशा है। वे चुनावों के लिए बंदूकें नहीं बनाते। असल में उनके पास दूसरा हुनर नहीं है’। आखिर बंदूक संस्कृति कब खत्म होगी? विश्‍लेषकों का मानना है कि जब मतदाता जागरूक हो जाएंगे तो स्वत: इस पर लगाम लग जाएगी। गोविंद बल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के सांस्कृतिक मानवविज्ञानी बद्री नारायण तिवारी का मानना है, ’हम एक परिपक्व लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं। हालांकि अभी कुछ राज्यों में हिंसा के माध्यम से सत्ता पाना इस प्रक्रिया का हिस्सा बन गया है, पर संभव है कि जब राजनीतिक स्थिरता आएगी और मतदाता जाति व समुदाय से बाहर निकल कर वोट देना शुरू करेंगे तो हिंसक घटनाएं कम हो जाएंगी’। विश्‍लेषकों का मानना है कि जब तक राजनीति में धन बल व बाहु बल का वर्चस्व रहेगा तब तक बंदूक का बोलबाला रहेगा। च्ाुनावी राजनीति में व्यापक सुधार के साथ जब तक जनता जागरूक नहीं होगी तब तक बंदूक की राजनीति होती रहेगी। मताधिकार के प्रति जनता का स्वत:स्फूर्त उठाया गया कदम ही बंदूक की राजनीति को रोक पायेगा। 

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