कैसे सुधरे रिश्‍वत देने की आदत

कैसे सुधरे रिश्‍वत देने की आदत
लोकनाथ तिवारी
रिश्‍वत देना अब हमारी आदत बन गयी है। बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र से लेकर मृत्यु प्रमाणपत्र तक के लिए हम इतनी आसानी से रिश्‍वत ऑफर कर बैठते हैं, जितनी आसानी से हमारे नेता झ्ाूठ झ्ाूठ बोलते हैं। रिश्‍वत लेना-देना अब नौकरशाही के अनेक नियमों में से एक नियम हो गया है। अब लोग रिश्‍वत लेने-देने को बुरा नहीं समझते बल्कि जो इस बात का विरोध करता है, उसे बेवकूफ़ और अति आदर्शवादी या पागल मान लेते हैं। बाबा आदम के जमाने में शायद रिश्‍वत लेने वालों को समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। अब ऐसा नहीं है। अब तो बाकायदा उनका ग्ाुणगान किया जाता है। उनकी शान में कसीदे पढ़े जाते हैं। पहले शपथ दिलायी जाती थी कि ईमानदारी से कर्तव्य का पालन करेंगे। अब भी शपथ लेते हैं पर पहले ही घ्ाूस देकर सर्विस हासिल करनेवालों से शपथ पर कायम रह पाना उचित भी नहीं कहा जा सकता। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या रिश्‍वतखोरी की हो गयी है। अब तो लोग इसे समस्या मानना ही बंद कर दिये हैं। इसे रोजमर्रा के  जीवन का एक हिस्सा मान लिये हैं। शासन प्रणाली के हर छोटे बड़े चरण पर चढ़ावा देना परंपरा मान लिये हैं। अगर कोई व्यक्ति या नेता यह कहता है या फिर दावा करता है कि वह इस देश से भ्रष्टाचार, रिश्‍वतखोरी मिटा देगा तो वह या तो भ्रम में जी रहा है या फिर झूठ बोलकर लोगों को बेवकूफ बना रहा है। रिश्‍वतखोरी हमारे समाज की अटल सच्चाई है जिसे नकारा नहीं जा सकता क्योंकि हमारे समाज की संरचना ही ऐसी हो चुकी है। यूं भी कह सकते हैं कि हमारे समाज का ढांचा ऐसा है कि जब तक हम रिश्‍वत नहीं दे देते, तब तक हमें विश्‍वास ही नहीं होता कि हमारा काम हो जाएगा क्योंकि इसी तरह का हमारा तंत्र बन चुका है।
हमारे यहां सैंकड़ों विभाग ऐसे हैं जहां रिश्‍वत जैसे पवित्र कार्य को सबके सामने मोल-तोल कर किया जाता हैै जिसमें न झिझक होती है न शर्म। पकड़े जाने का तो खतरा कतई नहीं होता। हमारे यहां ऐसे ही नहीं कहा जाता कि आदमी अदालत और अस्पताल से बहुत डरता है। कहावत है कि अदालत की ईंट-ईंट पैसा मांगती है और अस्पताल में जाकर व्यक्ति पैसे ही परेशान हो जाता है। तीमारदार तो वैसे ही बीमार पड़ जाता है। जब तक सरकार और उसके अधिकारी किसी भी तरह की रिश्‍वतखोरी चलने देंगे, तब तक न्याय नहीं होगा  लेकिन यह टिप्पणी भारत जैसे देश के लिए कोई मायने नहीं रखती जहां रिश्‍वतखोरी सर्वमान्य हो चुकी हो और हमारे खून में रच बस चुकी हो।
रिश्‍वत ऐसी अदभुत विधा है जिसे सामने वाला आपसे कभी नहीं मांगता। हां, आपके सामने ऐसी स्थितियां ला दी जाती हैं या आपको इतना डरा दिया जाता है कि आप खुद रिश्‍वत देने की पेशकश करने लगते हैं। आपके पेशकश करने के बाद फिर वह आपसे मोल भाव (बारगेनिंग) करता है। कई बार वह आपकी दयनीय हालत को देखकर अपने रेट से भी कम में काम कर देता है। यह जरा भले किस्म का और दयालु रिश्‍वतखोर होता है। हां, अगर आपने ईमानदार बनने की कोशिश की तो आपको सामने वाला सबक भी सिखा देता है। फिर जो काम दस हजार में हो रहा है, वह यह तो होगा नहीं और अगर होगा तो दूने रुपए देने पड़ सकते हैं।
 अब सरकारी नौकरी करने लोग जाते ही इसीलिये हैं कि कुछ ऊपरी कमाई हो सके। पता नहीं लोगों का नैतिक बोध कहां चला गया है? यह अत्यधिक संकट की स्थिति है कि भ्रष्टाचार न तो आमजन की चर्चा का विषय रह गया है और न ही किसी राजनीतिक दल का मुख्य एजेंडा। भ्रष्टाचार किस प्रकार देश को घुन की तरह खाये जा रहा है उसका सबसे बड़ा उदाहरण तो हमारे विधायक और सांसद हैं। देखते ही देखते ही देखते उनके महल खड़े हो जाते हैं, करोड़ों की अचल सम्पत्ति बन जाती है और अच्छा-खासा बैंक बैलेंस जमा हो जाता है। और आश्‍चर्य की बात तो यह है कि लोग इस विषय में ऐसे बात करते हैं कि जैसे यह एक आम बात हो। जिस जनता ने उनको चुनकर संसद या विधानसभा तक पहुंचाया है, वह तक प्रश्‍न नहीं करती कि उनके पास इतना धन आया कहां से? हमारे सरकारी कर्मचारी बिना घूस लिये कोई काम ही नहीं करते। एक राशनकार्ड बनवाना हो या जन्म प्रमाणपत्र बिना चढ़ावा के काम नहीं होता। आम आदमी बेचारा यह सब करता इसलिए है कि यदि वह रिश्‍वत नहीं देगा तो उससे अधिक पैसा तो दफ़्तर के चक्कर काटने में ही खर्च हो जायेगा। यह अब सिस्टम का हिस्सा बन गया है। इस पर किसी को कोई ऐतराज़ ही नहीं होता। लोग यह सोचकर पैसे लेकर जाते हैं कि बिना पैसे के तो काम होना ही नहीं है। भ्रष्टाचार के इस रोग के कारण हमारे देश का कितना नुकसान हो रहा है, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। पर इतना तो साफ़ दिखता है कि सरकार द्वारा चलाई गयी अनेक योजनाओं का लाभ लक्षित समूह तक नहीं पहुंच पाता। इसके लिये सरकारी मशीनरी के साथ ही साथ जनता भी दोषी है। सूचना के अधिकार का कानून बनने के बाद कुछ संवेदनशील लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध सामने आये हैं, जिससे पहले स्थिति सुधरी है। पर अभी भी बहुत कुछ होना है। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये जनता को और अधिक जागरूक बनना होगा। इसकी शुरुआत खुद से करनी होगी। बात-बात में सरकार को कोसने से काम नहीं चलेगा। जब हम खुद रिश्‍वत देने को तैयार रहेंगे तो सरकार क्या कर लेगी? हमें रिश्‍वत देना बन्द करना होगा। जनप्रतिनिधियों के चयन में सावधानी बरतनी होगी। 

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