कश्मीर पर गपबाजी से क्या हासिल होगा ?


पीओके को लेकर गरमागरम बयानबाजी के बीच हमारे कश्मीर में हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहा। कश्मीर पर बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में पाकिस्तान को जवाब देने पर ज्यादा जोर रहा। राज्य के लिए किसी ठोस राजनीतिक पहल की शुरुआत का कोई संकेत नहीं मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैठक में कश्मीर की तमाम समस्याओं के लिए सीमा पार से हो रही आतंकी घुसपैठ को जिम्मेदार ठहराया और कहा कि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (पीओके) भी हमारा है। अब पाकिस्तान को पीओके और बलूचिस्तान में अत्याचार पर जवाब देना होगा। पिछले एक महीने से, जब से कश्मीर में हिंसा का यह दौर शुरू हुआ है, तब से पाकिस्तान हमारे खिलाफ दुष्प्रचार कर रहा है। वह कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन का हल्ला मचा रहा है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि पीओके में भी हालात बेहद खराब हैं। हाल में वहां हुए चुनाव में जबर्दस्त धांधली हुई है और लोगों का पाक सरकार के खिलाफ आक्रोश उफान पर है। धांधली के विरोध में स्थानीय लोग सड़कों पर उतर आए। उनका आरोप था कि चुनाव में मुस्लिम लीग को जिताने के लिए आईएसआई ने धांधली करवाई। विरोध करने वालों को सेना और पुलिस ने जम कर पीटा। वहां जो कुछ भी हो रहा है उस पर भारत का बोलना वाजिब है। संसार का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने के नाते हमें किसी भी इलाके में नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों के दमन का विरोध करना चाहिए। आज पीओके में जो हो रहा है, वही बलिू्चस्तान में भी हो रहा है। लेकिन उनके लिए कुछ करने से पहले या उसके साथ-साथ हमें अपने कश्मीर पर ध्यान देना होगा।
जम्मू-कश्मीर के हालात को सुधारना भारत का पहला काम होना चाहिए क्योंकि दुनिया में कश्मीर की छवि एक उपद्रवग्रस्त इलाके की बनने लगी है। ऐसे में सर्वदलीय बैठक वक्त की मांग थी, लेकिन इसमें कश्मीर की स्थिति सुधारने को लेकर कोई ठोस घोषणा नहीं हो पाई। आश्‍चर्य है कि सर्वदलीय बैठक में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को बुलाने की जरूरत महसूस नहीं की गई। प्रधानमंत्री का यह कहना सही है कि घाटी के लोगों को विश्‍वास में लेने की जरूरत है, पर यह काम कैसे होगा? लगभग स्थायी रूप से अशांतिग्रस्त इस सीमावर्ती राज्य में पिछले ढाई दशकों में दो ही बड़ी राजनीतिक पहलकदमियां उल्लेखनीय रही हैं।
एक तो 1990 में जॉर्ज फर्नांडीज की अगुआई में एक सर्वदलीय कमिटी को कश्मीर भेजा जाना, और दूसरी, सन 2010 में पी चिदंबरम के नेतृत्व में एक संसदीय समिति द्वारा राज्य का दौरा। आज के माहौल में इनसे कहीं ज्यादा आगे बढ़कर एक नई राजनीतिक पहल की जरूरत है। लेकिन सर्वदलीय बैठक में ऐसे किसी प्रयास पर कोई सहमति नहीं बन पाई। कुल मिलाकर बैठक से इस आशंका को बल मिला है कि सरकार ने दबाव में आकर सर्वदलीय बैठक तो बुला ली पर अब भी उसके पास कोई ठोस नीति नहीं है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री का प्रभावशाली भाषण देश भर में फैले उनके समर्थकों को जरूर आश्‍वस्त करेगा, पर जिनके लिए इतना कुछ कहा गया, उनके भीतर कोई उम्मीद जगा पाएगा, इसमें संदेह है। 

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