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Its' me @ Office.
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Bapu's Last glimpse 

कसमें-वादे-प्यार वफा.. सब बेमानी

।। लोकनाथ तिवारी।।  (प्रभात खबर, रांची) रांचीः जिसने वादा निभाया, उसने सब गंवाया. कलयुगी नेताओं की जमात की कथनी-करनी देख कर तो यही कहा जा सकता है. वैसे भी वादा करना ही आसान होता है, निभाने की बारी आती है तो कसमें-वादे-प्यार वफा सब बातें बेमानी लगती हैं. हमारे लोकप्रिय नेताओं को ही ले लें, इनके कर्णप्रिय वादे सौ करोड़ी फिल्मों के दो-अर्थी संवाद से भी अधिक लोकलुभावन होते हैं, लेकिन जब पूरा करने की बारी आती है तो ये ऐसे गायब होते हैं जैसे गधे के सिर से सींग. अब इसमें इन आदत से लाचार नेताओं का भी कोई दोष नहीं है. जनार्दन कही जानेवाली जनता की याददाश्त ही कमजोर है, जो हर बार ऐसे अनेकों वादे सुनती है , वादा-खिलाफी की गुहार भी लगाती है , फिर कभी वादों के चक्कर में न पड़ने की कसमें खाती है, लेकिन फिर से उन्हीं नेताओं के भूल-भुलैया वाले वादों के डोर में बंधने से खुद को रोक नहीं पाती. हमारे देश में यह सिलसिला यूं ही चलता रहता है. नेता वादा करते नहीं अघाते. जनता उन पर बार-बार अल्पकालिक विश्वास भी कर लेती है. चुनाव के बाद जैसे नेता अपना वादा भूल जाते हैं, उसी तरह जनता भी यह पूछना भूल जाती ह

डीएनए में घुस गया है डिवाइड एंड रूल

डीएनए में घुस गया है डिवाइड एंड रूल  ।। लोकनाथ तिवारी।। ( प्रभात खबर, रांची) तेलंगाना को भारत का 29वां राज्य बनाने के पीछे की मनसा क्या है, इसकी विषद व्याख्या करना कहीं से समझदारी नहीं कही जा सकती. बांटो और राज करो (डिवाइड एंड रूल) की नीति हमारे डीएनए में बसी हुई है. यह कब से और कहां से अपनायी गयी, इसकी व्याख्या से भी कोई लाभ नहीं है. हमारी फितरत में तो सदैव बंटवारे का भूत सवार रहता है. दक्षिण व उत्तर भारतीय में बंटे हम कभी हिंदी तो कभी गैर हिंदी प्रदेशों में बंट जाते हैं. भाषा व प्रांतों की सीमाओं में सिमटी हमारी मानसिकता संकीर्णता की सारी हदें लांघती नजर आती है. एक ही प्रांत में अलग-अलग जिलों के रहने वाले भले ही पड़ोसी क्यों न हो, अपने जिले का बखान करते समय दूसरे जिले के लोगों के बारे में सरेआम  अभद्र शब्दों का प्रयोग करते नहीं अघाते. दिवंगत लोकगायक बलेसर ने तो इसी को आधार बना कर गीत भी गढ़ लिया था. रसवा भरल बा पोरे पोर, जिला . . वाली, उनके लोकप्रिय गानों में से एक था. एक ही जिले में ब्लॉकों, जवार व गांवों में बंटे हम यहीं नहीं थमते.  बचपन में कई बार काका की जुबान से सुना ह

शौकिया दुखियारों को एक सलाह

।। लोकनाथ तिवारी।। (प्रभात खबर, रांची) भाई साब! क्या आप शादीशुदा हैं? जी नहीं.. वैसे ही दुखी हूं. शादीशुदा लोगों के मुंह पर सदा बारह बजे रहने के कारण हजार हो सकते हैं, लेकिन शौकिया दुखियारों की भी इस दुनिया में कमी नहीं है. कम से कम अपने भारतवर्ष में तो ऐसे भाग्यवान बहुतेरे हैं, जिनको न आटे-दाल का भाव पता है, न सबला पत्नियों से पाला पड़ा है, फिर भी शादी की सिल्वर जुबली मना रहे पतियों की तरह दुखियारे दिखते हैं. इस तरह के गैर-शादीशुदा दुखियारों की जमात में वीवीआइपी मानुष भी हैं. जिज्ञासा काबू में रखिए, बताये देते हैं, इस जमात में सबसे आगे हमारे राहुल बाबा अर्थात कांग्रेस के आलाकमान नंबर दो हैं. उनके चेहरे से हंसी गायब देख कर आपको नहीं लगता कि ये हम शादीशुदा लोगों की तरह पीड़ित हैं. दूसरे नंबर पर हैं, प्रधानमंत्री की कुरसी का ख्वाब सजानेवाले धीर-गंभीर नरेंद्र मोदी. इनका चेहरा देख कर भी लगता है कि शादीशुदा लोगों की पीड़ा ङोल रहे हैं. अब कोई कहेगा कि इनको देश-दुनिया की चिंता सता रही है. अरे भई, कभी सबला पत्नियों को ङोलनेवालों से पूछते कि सतानेवाली चिंता क्या होती है. पति ऑफिस में

एमएमएस के फेर में दुनियादारी से मोहलत ।। लोकनाथ तिवारी।। (प्रभात खबर, रांची)

काका की जुबान से एमएमएस सुन कर किशोरावस्था को पार कर चुके भतीजे के कान खड़े हो गये. काका किसी से कह रहे थे- अरे भाई, हमको  तो लगता है कि ई एमएमएस ही ठीक है. इतना सुन कर भतीजा सोच में पड़ गया कि ऐसा क्या हुआ कि काका को हम लोगों वाली लत लग गयी. कहीं काका की आंखों पर रंगीनियों का चश्मा तो नहीं चढ़ गया है. काका बउरा तो नहीं गये हैं. आखिर पूछ ही बैठा- का हो काका, कौन एमएमएस आपको ठीक लग रहा है? किसको एमएमएस भेज रहे हो या कोई आपको एमएमएस भेज रहा है? काहे ई सब चक्कर में पड़ रहे हो? तब काका ने घुड़कते हुए कहा, सावन के आन्हरों (अंधों)की तरह काहे बतिया रहे हो. हमरा मोबाइल में कवनो ऐसी चीज नहीं आती है, जिससे तोहनी जइसन शोहदन का सरोकार होवे. ई त कुछ लोग चरचा कर रहे थे कि आजकल फेसबुकवा जइसन कवनो जगह पर एमएमएस और नमो के बीच जंग छिड़ी है. तब हमको पता चला कि ई सब राजनीति का चरचा कर रहे हैं. एमएमएस माने हमारे परधान-मंत्री मनमोहन सिंह. राजनीतिक बहस में पड़ना हम जैसे लोगों को शोभा नहीं देता. हम तो चौपाल, पंचायत, चट्टी और खेत-खलिहानों में ही अपनी बात कह-सुन लेते हैं. इसी बहाने घर-दुआर और परिवार की छोटी

रावण जिंदा हैं !

आज भी हमारे समाज में कई रावण जिंदा हैं। इन रावणों की करतूत ऐसी हैं कि त्रेता के रावण की भी नींद उड़ जाए। दशहरा और नवरात्रि के अवसर पर एनबीटी ने कई मुद्दों को आपके सामने रखने की पहल की है। पवित्रा (बदला हुआ नाम) ने अपने पिता द्वारा किए जा रहे दुराचार की शिकायत सीएम जनता दरबार में करके हिम्मत की अनोखी मिसाल पेश की। उनकी कहानी खुद उन्हीं की जुबानी बहुत भयावह था। घिनौना था वो समय। उम्मीद नहीं थी कि ऐसा भी हो सकता है।   मगर जो हुआ मुझे उसके खिलाफ खड़ा होना ही था। जब अपनों से भरोसा उठता है तो कुछ कदम उठाने ही पड़ते हैं। वही किया मैंने...  मैं अपनी नानी के यहां रहती थी और वहीं पढ़ती  थी। 2004 में अपना घर हुआ, तो गृह प्रवेश के समय मुझे बुलाया गया। मैं आई। कुछ दिनों  बाद मैं जाना चाहती थी। दरअसल मैं तो यहां कभी रहना ही नहीं चाहती थी। मुझे अपना  ननिहाल ही पसंद था। वहीं अब तक रहती आई थी तो वही जगह मुझे भाती थी। वहां लोग  मुझे प्यार भी बहुत करते थे, मगर मुझे जाने नहीं दिया गया। मेरे पिता ने कहा, अब अपना  घर हो गया है तो यहीं रहो। मेरे पास जवाब नहीं था, मुझे रुकना पड़