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आप तो बड़े जहीन हैं मियां !

लोकनाथ तिवारी प्रभात खबर, रांची   ब्रrांड में सबसे बुद्धिमान प्राणी कौन है? एक सुर में इसका जवाब कोई भी दे सकता है. आप भी. हम भी. लेकिन इसका जवाब सदैव पक्षपात पूर्ण ही माना जायेगा. अपने मुंह मियां मिट्ठ बनने वाले प्राणियों में शिरोमणि माने जानेवाले मनुष्य को इसका जवाब देने में जरा भी संकोच नहीं होता. सभी एक सुर में इसका जवाब देंगे. मनुष्य. यह सही है कि इसका जवाब जानने के लिए हमने अन्य प्राणियों की प्रतिक्रिया तो ली नहीं. उनका जवाब सुन व समझ लेते तो शायद मानव जाति की खुशफहमी ही दूर हो जाती. आप सोच रहे होंगे कि अनायास ही इस तरह के दार्शनिक विचार हमारी खोपड़ी में तो आ नहीं सकते. आप सही हैं. जबसे हमारे प्रधानमंत्री साहब ने मुसलमानों को देशभक्ति का सर्टिफिकेट दिया है, तब से हमारे फुरकान भाई फूले नहीं समा रहे. उनकी छाती पता नहीं कितने गज की हो गयी है. वह तन गये हैं. समाज सेवा के लिए गांव और समाज के साथ-साथ पता नहीं कितनी बार उनको जिले में  मंच पर सम्मानित किया जा चुका है. लेकिन जब से प्रधानमंत्री की मुसलमानों के बारे में टिप्पणी सार्वजनिक हुई है तब से वह खुद को ज्यादा सम्मानित महसूस करने

बिनु हरि कृपा मिलहु नहीं पंथा

लोकनाथ तिवारी प्रभात खबर, रांची बिनु हरि कृपा किसी का भला नहीं हो सकता. गोस्वामी तुलसीदास जी का यह फार्मुला आधुनिक नेताओं के लिए लाइफलाइन साबित हो रही है. जीतेजी गुमनामी का नरक भोगने से तो बेहतर है कि  हरि भजन में मगन होकर मलाई काटें. किसी को दुखी किये बिना सुखी होने का फार्मुला बड़ा सहज है. गोस्वामी तुलसीदास जी का अनुसरण करिये. हरि गुन गाइये. जमीनें कब्जानी हैं, आलीशान घर बनाने हैं, बडी गाड़ियां खरीदनी हैं, कुछ स्विस बैंक में भी जमा करना है, राजनीति की वैतरणी पार करनी है तो अब एकमात्र हरि हैं, जिनको भजने से बेड़ा पार हो सकता है. अब तो जिसे देखिये वही हरि शरण का मोहताज दिखने लगा है. यह अनायास ही नहीं है. कई लौह पुरुषों का हश्र देख कर तो ऐसा करना लाजिमी (मजबूरी) भी है. कभी भारी-भरकम, तेज-तर्रार और पता नहीं क्या-क्या, किन-किन विशेषणों से अतिशोभित लौह पुरुषों को निर्वासित कोपभवन का (गैर) महिमामंडित सदस्य बनना पड़ा है. इनकी हालत देखकर सबका पौरुष धरा का धरा रह गया है. धर्म प्रधान हमारे इस देश में जो हरि के गुन गाता है, उसका कल्याण खुदा भी नहीं रोक पाते. हरि कृपा से उस पर तीनो लोक के वैभ

कभी आर कभी पार इस बार आर-पार!

लोकनाथ तिवारी प्रभात खबर, रांची आजकल जिसे देखो आर-पार के मूड में दिख रहा है. इतिहास की वीरगाथाओं व अतीत के युद्ध परिणामों की दुहाई देते हम नहीं थकते. पाक को 1971 और कारगिल का हस्र याद दिलाते हुए हमारी छाती चौड़ी हो जाती है. हमारे अति देशभक्त नेता तो हर समय आर-पार की लड़ाई के मूड में दिखते हैं. आखिर इसी के सहारे ये जनता को रोटी-दाल, आलू-प्याज, भूख-बेरोजगारी और अपनी नाकारियों से विमुख करने में कामयाब होते रहते हैं. हमारे देश ही नहीं बल्कि पाक मीडिया में भी इसी तरह की खबरें आ रही हैं. आज सुबह ही पी-टीवी में भी सुना. सीमा पार से गोलीबारी में चार अपराध हलाक हो गये. वहां के अस्थिर राजनीतिक हालात से जनता का ध्यान हटाने का इससे बेहतर तरीका भला क्या हो सकता है. अपने देश में तो स्थिर और मजबूत सरकार है. इसकी मजबूती की अलग परिभाषा तय करनेवाली शिवसेना के मुखपत्र में तो यहां तक कहा गया है कि अब भारत को  पाक में घुसकर हमला करने की जरूरत है. केंद्र में अब कांग्रेस की तरह कमजोर सरकार नहीं, बल्कि मजबूत सरकार है. उसे तुरंत पाक को सबक सिखाने के लिए हमला करना चाहिए. इसी तरह के मनोभाव से लैस जनता को युद्

हम उल्लू नहीं बनेंगे लेकिन कब तक

लोकनाथ तिवारी प्रभात खबर, रांची lokenathtiwary@gmail.com बचपन में लगता था कि केवल हमारे गांव में ही ऐसा होता है. उमर बढ़ी और कूप मंडूक से ग्लोबल मानुष की कैटेगरी में आ खड़े हुए तो पता चला कि इस छोटे से फामरूले पर राजनीति की दुकानदारी फल-फूल रही है. गांव की चौपाल से लेकर विधानसभा व लोकसभा चुनाव तक यह फामरूला फारमुला कारगर रहता आया है. बस किस नाम पर किसके खिलाफ गोलबंदी होनी है यह स्थान, काल पात्र के आधार पर तय होता रहा है. बिहार उपचुनाव में लालू-नीतीश की गलबहिया देख हमारे टीन एजर बबुआ व उसके नव युवा वोटर बने दोस्त की आंखें आश्चर्य से फटी रह गयी. जब नतीजा आया तो इनका आक्रोश देखने लायक था. भुनभुनाते हुए जब इनकी टोली काका के सामने से गुजरी तो काका ने जबरन आशीर्वाद देते हुए उनके मुंह फुलाने का कारण पूछा. पहले से ही भरे पड़े नेट-चैट युगीन बच्चे काका के सामने फ ट पड़े. कहा,जबतक अनैतिक गंठबंधन की राजनीति रहेगी, तबतक देश का भला नहीं हो सकता. भाजपा को हराने के लिए बिहार में गोलबंदी की गयी. यह गलत है. काका ने बच्चों को पुचकारते हुए कहा, यह गोलबंदी कोई नयी बात नहीं. घर से लेकर जवार और देश

बीवियोंवाला नुस्खा सफलता की गारंटी

लोकनाथ तिवारी प्रभात खबर, रांची जासूसी के जरिये सफल होने का गुर पत्नियों को बखूबी आता है. करनी ना धरनी घर-परिवार की सत्ता पर काबिज होनेवाली पत्नियां अपने शौहर को ही नहीं बल्कि पूरे परिवार को अपनी अंगुलियों पर नचाती है. अजी नचाती क्या? गवाती, हंसाती और खूब रुलाती भी हैं. आखिर मियां की नब्ज पर उनकी पकड़ जो कसी होती है. पति व सास, ससुर का सीक्रेट हथिया कर पूरे परिवार की नकेल अपने हाथों में लेने का हुनर कोई इन पत्नियों से सीख सकता है. लगता है हमारी नयी सरकार ने भी इसे सीख ही नहीं लिया बल्कि उस पर अमल भी करने लगी है. अखबार में पढ़ा कि भाजपा के शीर्ष नेताओं की जासूसी करायी जा रही है. भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के घर जासूसी उपकरण मिलने के बाद अभी बात ठीक से दबी भी नहीं थी कि और कई शीर्ष नेताओं  की जासूसी का मामला सामने आ गया है. इससे तो यहीं लगता है कि सफलता के गुर का कनेक्शन कहीं न कहीं बीवियों के नुस्खे से जुड़ा है. कहा भी गया है कि जासूसी वहीं कराते हैं, जो आपके अपने, खास व नजदीकी हों. कहीं नयी सरकार भी तो अपनों की नब्ज टटोलने में नहीं न जुटी है.  

दिन महीने साल गुजरते जायेंगे..

लोकनाथ तिवारी प्रभात खबर, रांची दिन महीने साल गुजरते जायेंगे, अब अच्छे दिन नहीं, अच्छे साल आयेंगे.. पिछले कुछ दिनों से हमारे एक सहकर्मी इसी तरह भुनभुना (गुनगुना) रहे हैं. आखिर छह महीनों से टीवी, मीडिया में अच्छे दिन की लोरियां सुनने का साइड इफेक्ट तो होना ही था. गाने का मतलब पूछने पर पहले तो बिदक उठे. फिर शांत हुए तो कहा कि अब अच्छे दिन की बात भूल जाइए. 2019 में ‘अच्छे साल आयेंगे’ का नारा बुलंद होगा, उसके बारे में सोचिए. बढ़ती महंगाई पर बेवजह चिंचियाइए नहीं, कुछ दिनों बाद इसकी आदत पड़ जायेगी. रेल किराया बढ़ा कर अच्छे दिन की सरकार इसी आदत को पुख्ता करना चाहती है. अब देखिए, रेल बजट में किराया नहीं बढ़ा तो कैसा फील गुड हो रहा है. हमारे अच्छे दिनवाले नेताजी तो इस रेल बजट पर दार्शनिक हो उठे. कहा कि पिछले कुछ दशकों से भारतीय रेल में एक बिखराव महसूस होता था. टुकड़ों में सोचा जाता था. पहली बार रेल बजट में समग्रता दिखी है. और तो और, हमारे काका भी बजट के बाद से बेचैन हैं. उनको कुछ सूझ नहीं रहा है कि चाय चौपाल में रेल बजट की कौन सी बात का बखान करें. काका की छोड़िए, हमारे बॉस को भी नहीं सूझ

मरने के जुगाड़ में जीने की मजबूरी

।। लोकनाथ तिवारी।।  (प्रभात खबर, रांची) बड़े भले आदमी थे. जाते-जाते भी किसी को परेशान नहीं किया. भगवान ऐसी मौत सबको दे. बेचारे सोय-सोये ही चले गये. वह भी छुट्टीवाले दिन, सुबह. किसी को परेशान नहीं होना पड़ा. मरनेवाले की अनायास ही प्रशंसा करना हमें सिखाया गया है. शायद यही कारण था कि सुबह-सुबह अपने शतायु पड़ोसी की मौत के बाद हर आने-जाने वाला इसी तरह अपना शोक जता रहा था. अचानक मुङो अपना ख्याल आ गया. पहली बात तो यह कि एक हिंदी पत्रकार शतायु कैसे हो सकता है. फिर अपने परिजन व पड़ोसियों को सहूलियत हो, ऐसी मौत कैसे आये. इसे लेकर उधेड़बुन में फंस गया. सोचता हूं, अभी ही कौन से मजे से जी रहा हूं. रोज मरने से अचानक मौत की कल्पना उतनी बुरी भी नहीं लगती. सोचता हूं कि छुट्टी के दिन मरने पर कैसा रहेगा. अंतिम यात्र में सभी शामिल हो सकेंगे. फिर, डर भी लगता है कि उनकी छुट्टी बरबाद होगी, मन ही मन गालियां बकेंगे. फिर सोचता हूं, हम पत्रकारों को छुट्टी मिलती भी कहां है. शाम को मरने पर फजीहत ही होगी. कोई पूछने भी नहीं आयेगा. शाम को तो पत्रकारों की शादी भी नहीं होती. आधी रात के बाद शादी का मुहूर्त निक