टुकड़े-टुकड़े मेंं बंटती जिन्दगी

बांटो और राज करो (डिवाइड एंड रूल) की नीति अंग्रेजों ने यूं ही नहीं अपनाई थी। यह तो मानव जाति के डीएनए में बसी हुई है। पूरी मानव जाति से हम भारतीय भी शामिल हैं। हमारी फितरत में तो सदैव बटवारे का भूत सवार रहता है। जब हम पृथ्वी से बाहर होते हैं तो हमें दूसरे ग्रहों की तुलना में अपनी धरती सुंदर लगती है। धरती पर हमें एशिया महाद्बीप खूबसूरत लगता है। यहां तक कि विश्व कप फुटबाल या हॉकी प्रतियोगिताओं में हमारी टीम नहीं होने पर हम एशियाई समर्थक बन जाते हैं। विदेश यानि पश्चिमी महादेशों में होने पर एशियाई होने की भावना, एशिया में आते ही दक्षिण एशिया या सार्क देशीय बन जाती है। यहां तक कि हमारे प्रथम अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा को भी चांद से 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा’ दिखा।


भारत मेें पहले तो हम दक्षिण व उत्तर भारतीय में बंटे रहते हैं। उसके बाद हिन्दी व गैर हिन्दी प्रदेशों में बंट जाते हैं। भाषा के आधार से परे हटते ही हम प्रांतों की सीमाओं में सिमट जाते हैं। प्रांतीयता के भीतर भी उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम इलाकों को अलग करने की मांग हमारे भीतर बलवती हो उठती है।

इसका ज्वलंत उदाहरण पश्चिम बंगाल है। इस प्रदेश के उत्तर व दक्षिण बंगाल के लोग न केवल भाषा बल्कि शक्ल व अक्ल के आधार पर भी बंटे हुए हैं। राजनीतिकरूप से भी इनमें साफ अंतर दिखता है। वर्तमान सरकार में दक्षिण बंगाल में कांग्रेस लगभग शून्य है जबकि उत्तरी बंगाल के तीन जिलों में इनका परचम लहरा रहा है। उत्तर प्रदेश में भी पूर्वी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों की बोलचाल व संस्कृति तथा पहनावा ही नहीं बल्कि इनके आकार भी अलग हैं।

एक ही प्रांत में अलग-अलग जिलों के रहने वाले भले ही पड़ोसी क्यों न हो, अपने जिले का बखान करते समय दूसरे जिले के लोगों के बारे में अभद्ग शब्दों का खुलकर प्रयोग करते हैं।

हमारे दिवंगत लोकगायक बलेसर ने तो इसी को आधार बनाकर गीत भी गढ़ लिया था। हालांकि उन्हांेने अपने प्रशंसकों का कोपभाजन नहीं होने के लिए सब के बारे में अच्छा-अच्छा ही गाया। रसवा भरल बा पोरे पोर, जिला .. .. वाली, उनके लोकप्रिय गानों में से एक था।

एक ही जिले में ब्लॉकों, जवार व गांवों के बीच की जंग कई बार भयंकर रूप लेती देखी गई है। गांव में भी उत्तर टोला व दक्षिण टोला के भीतर व्यंग्य करते हुए कई बार हमारे बुजूर्ग टिप्पणी करने से नहीं चूकते। 'अरे भाई ई दक्खिन टोलहन के बात छोड़, इहनी के बात अउरी जात के ठीक ना होला।’ ऐसा लगता था जैसे उत्तर व दक्षिण टोला के बीच हिन्दुस्तान व पाकिस्तान की तरह का विभाजन हुआ हो।

टोला की बात तो दूर एक ही घर-परिवार में बड़का, मंझला व छोटका के बीच विभाजन के मुद्दे पर महाभारत की गाथा तैयार हो गई। भाई-भाई के बीच के बंटवारों की जड़ पर आधारित हजारों अदालती मामले अभी भी विचाराधीन पड़े हैं। पति-पत्नी के बीच के विभाजन पर तो हमारे अधिकांश वकीलों का एक गुट जीवित है। शादी-तलाक सम्बन्धी मामलों को अदालत में या अदालत के बाहर निपटाने में महारत हासिल करने वाले वकीलों की फौज विदेशों में ही नहीं बल्कि हमारे देश में भी मौजूद हैं।

बांटने व विभक्त होने की हमारी मानसिकता हम अपने शरीर पर भी लागू करते हैं। अपने ही शरीर के विभिन्न अंगों की देखभाल करने में हम समान समय नहीं देते। हमारे दांत, हाथ, पैर अक्सर उपेक्षा के शिकार होते हैं। अगर बिना बिस्तर के ही सोना पड़े तो हम अपने हाथों को सिर के नीचे लगाने में हिचकते नहीं, जैसे हाथ हमारे न होकर किसी और के हों। अपने चेहरे की देखभाल करते समय भी हम शरीर के अन्य अंगों की भरपूर उपेक्षा करते हैं। पता नहीं कब और कहां से हमने टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त होने की आदत सीखी, जो मौत के साथ ही हमारा पीछा छोड़ती है।

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