गया टेट में नगदी का जमाना

एक समय की बात है, जिसकी टेट में जितनी नकदी होती थी, उसे उतना ही रोबदाब वाला समझा जाता था। अब यह ग्ाुजरे जमानेवाली बात हो गयी है। वह दिन दूर नहीं जब टेट में ख्ाुदरा भी नहीं रहेगा। लगता है हमारे मुखिया हमें कैशलेस बनाकर ही दम लेंगे। या यूं कहिए कि कैशलेस होना हमारी मजब्ाूरी होने जा रही है। कई जानकार बता रहे हैं कि इसमें कोई ब्ाुराई भी नहीं। अब तो हमारे काका भी एटीएम, पेटीएम, जियो वालेट और प्लास्टिक मनी के दौर में पहुंच गये हैं। भले ही उनको अपनी रोजमर्रा की जीवन कांख कराह कर काटनी पड़ रही हो। आजकल हम एटीएम के सामने कतारबद्ध जीवन ग्ाुजार रहे हैं। ज्ञान ग्ाुण सागर अर्थ शास्त्री यह बताते थकते नहीं कि किस देश में कितनी दुकानदारी और खरीदारी कैशलेस होती है। कहा जा रहा है कि इस मामले में हम नाइजीरिया तक से पीछे हैं। कैशलेस समाज बनाने के संकल्प अब हर जगह दिखने लग गए हैं। हमारे सार्वजनिक विमर्श का यह नया अध्याय है। कभी महात्मा गांधी भेदभाव मुक्त समाज बनाना चाहते थे, समाजवादियों और साम्यवादियों ने समतामूलक समाज की बात की थी, नेहरू जैसे कई थे, जो लोकतांत्रिक समाज बनाने की बात करते थे। अब ये सारे संकल्प कहीं सुनाई भी नहीं पड़ते। इनकी जगह जिस कैशलेस समाज की सोच ने ले ली है, उसका निहितार्थ सिर्फ आर्थिक विनिमय तक सीमित नहीं है। इसके पीछे की भावना देश को दुनिया की आधुनिकता से जोड़ने की है। तमाम विकसित देशों के बराबर लाकर खड़ा करने की है। यह बात अलग है कि अमेरिका जैसे देश भी अभी इस अवधारणा से जूझ रहे हैं, बावजूद इसके कि वहां कारोबार का एक बड़ा हिस्सा कैशलेस हो चुका है। फिर भी न नकदी पूरी तरह खत्म हो रही है, और न उसका मोह। वहां चिंताएं दूसरी तरह की हैं। वहां लोगों को कैशलेस में निजता के खत्म होने का खतरा सताता है। कैशलेस का मतलब है कि आपके हर लेन-देन का ब्योरा कंप्यूटर में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। कुछ को यह डर सताता है कि अगर उनका यह सारा आर्थिक अतीत किसी तलाक दिलाने वाले वकील के हाथ लग गया, या इसका ब्योरा किसी कर्ज देने वाले वित्तीय संस्थान के पास पहुंच गया, तो क्या होगा? ऐसा न भी सोचें, तो लोगों की खरीद-फरोख्त के आंकड़ों का बाकायदा एक पूरा कारोबार चलता है। बिग डाटा एनालिसिस के जरिये तरह-तरह की खरीद, रुचियों और जरूरतों वाले लोगों को वर्गीकृत किया जाता है और फिर उनके फैसलों को प्रभावित करने वाले ई-मेल उन तक पहुंचने लगते हैं। इसमें खतरे से ज्यादा डर की भूमिका हो सकती है, लेकिन अमेरिका में समृद्ध लोग कुछ खरीदारी तो नकद में ही पसंद करते हैं। बाकी गरीबों के लिए तो नकदी अभी उनकी जीवनशैली का हिस्सा है। वहां भी आबादी का एक बड़ा प्रतिशत ऐसा है, जिनका बैंकों में खाता तक नहीं है। बेशक यह अच्छी स्थिति नहीं है, लेकिन नकदी से जुड़ी मानसिकता इतनी जल्दी खत्म होने वाली नहीं है- यह वहां भी स्वीकार किया जा चुका है। धन होने या न होने का एहसास हमारे जीवन में कई तरह से होता है। एक तो चल-अचल संपत्ति के रूप में होता है, दूसरा बैंक बैलेंस और लेनदारियों के रूप में होता है, लेकिन इसका तत्काल एहसास हमारे हाथ या हमारी जेब में मौजूद मुद्रा के रूप में ही होता है। यह कहा जाता है कि मुद्रा ही वर्तमान है। अंग्रेजी का मुहावरा है- मनी इज करंट। इसी करंट से करेंसी शब्द बना है। यह सच है कि ये मुहावरे, ये सोच और यह एहसास जिस युग की देन हैं, वह अब बदल रहा है। अब नई जरूरतों और नई तकनीक के साथ ही मुद्रा अपने रूप बदल रही है, तो यह मानसिकता भी देर-सबेर बदलेगी ही। बदल भी रही है। दुनिया में इस बदलाव के दो रूप हमारे सामने आए हैं। एक बदलाव पश्‍चिमी देशों का है, जहां समय के साथ तकनीक और समाज, दोनों बदल रहे हैं। इसके साथ ही, धीरे-धीरे लोगों के आर्थिक लेन-देन का तरीका भी बदल रहा है। स्वीडन जैसे देशों में तो नकदी लेन-देन लगभग बंद-सा हो गया है। दूसरा तरीका नाइजीरिया का है, जहां बड़े पैमाने पर लोगों के बैंक खाते खुलवाए गए और अब उनमें सब्सिडी और अन्य तरह की सरकारी आर्थिक मदद का पैसा सीधे पहुंच जाता है। ठीक वैसे ही, जैसी जन धन खाते और आधार कार्ड की हमारी परिकल्पना है। लेकिन भारत में इस समय जो हो रहा है, वह इससे बिल्कुल ही अलग है। यहां सरकार के एक आदेश से बाजार से नकदी गायब हो गई है, इसलिए कैशलेस होने का दबाव है, मजबूरी भी है और आग्रह भी है। बहुत से लोग कैशलेस की ओर बढ़े भी हैं, कुछ लोग अगले कुछ हफ्तों में इस ओर बढ़ जाएंगे। लेकिन यह भी तय है कि कैशलेस इंफ्रास्ट्रक्चर की सीमाओं, गरीबी और अशिक्षा की वजह से एक बहुत बड़ा तबका इससे दूर ही रह जाएगा। नकदी की किल्लत रही, तो यह दूर रहने वाला तबका अपने जीने के लिए दूसरे विकल्प खोजेगा, जो आगे जाकर परेशानी के कारण भी बन सकते हैं। काले धन वाले इसका विकल्प नहीं ढूंढ़ लेंगे, यह मानने का कोई कारण नहीं है। कैशलेस व्यवस्था हमारी कई परेशानियों को खत्म कर सकती है, कुछ नई परेशानियों को जन्म भी दे सकती है, लेकिन इससे समाज में आर्थिक नैतिकता स्थापित हो जाएगी, इसे कोई भी दावे से नहीं कह सकता। दुनिया कैशलेस हो रही है, धीरे-धीरे हमें भी होना है। लेकिन काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई इससे कहीं ज्यादा बड़ी है, कहीं ज्यादा जटिल भी। अभी तो केंद्र सरकार ने काला धन रखनेवालों को अपना धन सफेद करने के लिए एक दिलचस्प शर्त रखी है कि 50 प्रतिशत ‘कर’ चुकाओ और अपना पूरा काला धन ‘सफेद’ कर लो। यानी आधा तुम्हारा और आधा हमारा। यानी मिल-बांटकर खाओ और बैकुंठ में जाओ। तुम भी खुश, हम भी खुश। तुम्हारी भी जय-जय और हमारी भी जय-जय। ताली दोनों हाथों से बजती है। तुम अपना विकास करो और हम जनता का विकास करें। इसलिए आओ आगे और साथी हाथ बढ़ाओ, क्योंकि हम-तुम आगे बढ़ेंगे, तो अपने-आप देश भी आगे बढ़ेगा। अगर श्ाुरू में ही ऐसी स्थिति बन रही है तो कैशलेस समाज में भी काले धनवालों को निश्‍चय ही सहूलियत मिलनेवाली है।

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