सम्मान दें बजुर्गों के तजुर्बे को
लोकनाथ तिवारी (लोकनाथ तिवारी)
बालगंगाधर तिलक ने एक बार कहा था कि ‘तुम्हें कब क्या करना है यह बताना बुद्धि का काम है, पर कैसे करना है यह अनुभव ही बता सकता है।’ किसी ने सच ही कहा है: ‘फल न देगा न सही, छाँव तो देगा तुमको। पेड़ बूढ़ा ही सही, आंगन में लगा रहने दो।’
बुजुर्ग अनुभवों का वह खजाना है जो हमें जीवन पथ के कठिन मोड़ पर उचित दिशा निर्देश करते हैं। बुजुर्ग घर का मुखिया होता है इस कारण वह बच्चों, बहुओं, बेटे-बेटी को कोई गलत कार्य या बात करते हुए देखते हैं तो उन्हें सहन नहीं कर पाते हैं और उनके कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं जिसे वे पसंद नहीं करते हैं। वे या तो उनकी बातों को अनदेखा कर देते हैं या उलटकर जवाब देते हैं। जिस बुजुर्ग ने अपनी परिवार रूपी बगिया के पौधों को अपने खून पसीने रूपी खाद से सींच कर पल्लवित किया है, उनके इस व्यवहार से उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचती है। एक समय था जब बुजुर्ग को परिवार पर बोझ नहीं बल्कि मार्ग-दर्शक समझा जाता था। आधुनिक जीवन शैली, पीढ़ियों में अन्तर, आर्थिक-पहलू, विचारों में भिन्नता आदि के कारण आजकल की युवा पीढ़ी निष्ठुर और कर्तव्यहीन हो गई है। जिसका खामियाजा बुजुर्गों को भुगतना पड़ता है। बुजुर्गों का जीवन अनुभवों से भरा पड़ा है, उन्होंने अपने जीवन में कई धूप-छाँव देखे हैं जितना उनके अनुभवों का लाभ मिल सके लेना चाहिए। गृह-कार्य संचालन में मितव्ययिता रखना, खान-पान संबंधित वस्तुओं का भंडारण, उन्हें अपव्यय से रोकना आदि के संबंध में उनके अनुभवों को जीवन में अपनाना चाहिए जिससे वे खुश होते हैं और अपना सम्मान समझते हैं। बुजुर्ग के घर में रहने से नौकरी पेशा माता-पिता अपने बच्चों की देखभाल व सुरक्षा के प्रति निश्चिंत रहते हैं। उनके बच्चों में बुजुर्ग के सानिध्य में रहने से अच्छे संस्कार पल्लवित होते हैं। बुजुर्गों को भी उनकी निजी जिंदगी में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उनके रहन-सहन, खान-पान, घूमने-फिरने आदि पर रोक-टोक नहीं होनी चाहिए। तभी वे शांतिपूर्ण व सम्मानपूर्ण जीवन जी सकते हैं। बुजुर्गों में चिड़चिड़ाहट उनकी उम्र का तकाजा है। वे गलत बात बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं, इसलिए परिवार के सदस्यों को उनकी भावनाओं व आवश्यकता को समझकर ठंडे दिमाग से उनकी बात सुननी चाहिए। कोई बात नहीं माननी हो तो, मौका देखकर उन्हें इस बात के लिए मना लेना चाहिए कि यह बात उचित नहीं है। सदस्यों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई ऐसी बात न करें जो उन्हें बुरी लगे।
बुजुर्गों के शोषण और उनके खिलाफ हिंसा की वारदात अकेले भारत की समस्या नहीं है। दुनिया भर में ये एक गंभीर समस्या बनकर उभरी है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र ने भी इस बारे में प्रस्ताव दिए हैं, सम्मेलन किए हैं। विभिन्न सामाजिक, आर्थिक कारणों से आज अधिकांशत: एकल परिवार बढ़ रहे हैं। महानगरों में अनेक ऐसे वृद्धजन हैं जिनके बच्चे विदेशों में नौकरियां कर रहे हैं। वे ही माता-पिता, जिन्होंने उन बच्चों को सुरक्षित कर विदेश जाने के योग्य बनाया है, अपनी वृद्धावस्था में पड़ोसियों की मदद के मोहताज हैं। विदेशों में बसे बच्चे उन्हें रुपये तो भेज सकते हैं किन्तु व्यक्तिगत रूप से समय नहीं दे सकते।
बुजुर्गों को जो सुख अपने नाती-पोतों को खिलाने, पढ़ाने, घुमाने में मिलता था, उससे आज वे सर्वथा वंचित होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवारों में सहज ही बच्चों की देखरेख हो जाती थी और आज व्यवसायिक, यांत्रिाक युग में बच्चों की देखरेख हेतु क्रेच (पालनाघर) हैं। बुजुर्गों हेतु ’ओल्डएज हाउस‘ हैं। वर्ष में एक बार ‘ग्रेंड पैरेन्ट्स डे’ मनाकर समाज बुजुर्गों के ॠण से मुक्त होना चाहता है। संस्थागत रूप से ओल्ड एज होम्स में कुछ बच्चे अपने लिये उसी तरह ग्रेंड पैरेन्ट्स मनोनीत करते हैं जिस तरह अनाथ आश्रम के बच्चों को लोग गोद लेते हैं। भौतिकता की अंधी भागदौड़ में वृद्धों के प्रति सम्मान घटा है। सार्वजनिक स्थलों में वृद्धों हेतु अलग लाइनों की कानूनी व्यवस्था से ज्यादा कारगर वृद्धों के प्रति सार्वजनिक सम्मान की भावना के संस्कारों का विकास है। कानूनी रूप से शासन ने वृद्धावस्था पेंशन, रेल एवं बस में किराये पर छूट, वृद्धों हेतु बैंकों में ज्यादा ब्याज दर आदि लाभ सुनिश्चित किये हैं किन्तु समय की वास्तविक मांग है कि वृद्धों के प्रति सम्मान की नैतिकता का विकास किया जाये। वृद्धावस्था जीवन का एक अहं हिस्सा है। वृद्धों की अपनी ही समस्याएं होती हैं। स्वास्थ्य, सार्वजनिक जीवन में उन्हें महत्त्व, परिवार में बड़प्पन वृद्धों हेतु आवश्यक हैं। एक दिन हम सब को वृद्ध होना है। वृद्धों के पास शारीरिक शक्ति की भले ही कमी हो पर उनके पास अनुभवों का खजाना होता है। जनरेशन गैप के चलते वृद्धजन समय से तालमेल बैठाने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। वर्तमान तेजी से बदलते सामाजिक, सांस्द्भतिक मूल्यों के कारण उनका मन आहत होता है। केवल परिवार का प्यार ही उनके इस आहत मन पर मरहम लगा सकता है। समाज में विभिन्न योजनाओं में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिये। घर, परिवार, समाज, और सरकार, हर स्तर पर वृद्धजनों के प्रति सम्मान के प्रयास समय की मांग हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में इस समय कुल आबादी का आठ से नौ फीसदी बुजुर्ग लोग है। बुजुर्गो और वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए कानून हैं, यात्रा, स्वास्थ्य, आवास, चिकित्सा आदि में भी कई तरह की सुविधाएं हैं लेकिन देश की बुजुर्ग आबादी का एक बड़ा तबका ऐसा है जो सरकारी स्कीमों, कल्याण योजनाओं और कार्यक्रमों से वंचित है। उन तक कोई सरकारी इमदाद नहीं पहुंचती, कानूनी मदद तो दूर की कौड़ी है। अब सवाल यही है कि क्या कानून बना भी दिया जाए तो क्या वो काफी है। क्योंकि कानून तो कहने को बहुत हैं। स्त्री अत्याचारों के खिलाफ कानूनों की कमी नहीं लेकिन अगर कानून का ही डर होता तो बलात्कार, और अन्य हिंसाएं रोजाना के स्तर पर न घट रही होतीं। तो इस पाशविकता का मुकाबला कैसे किया जा सकता है। जाहिर है कानून पर अमल के मामले में हमारा सिस्टम सुस्त है। कानूनी कार्रवाइयां एक अंतहीन बोझ और बाजदफा यातना की तरह पीड़ितों पर ही उलटे वार करने लगती हैं। लोग फिर डरते हैं और सहम जाते हैं। वे कानून, अदालत और वकील के चक्करों में फंसना नहीं चाहते। जब तक कानून एक फांस की तरह निर्दोष और साधारण नागरिकों को डराता रहेगा तब तक वो उनकी भलाई के लिए कितना कारगर रह पाएगा, कहना कठिन है। तो कानून पर अमल के तरीकों में बदलाव होना चाहिए, सजा को अंजाम तक पहुंचना चाहिए, तत्परता दिखानी चाहिए और सामाजिक मूल्यों की तोता रटंत करने वाली, धार्मिक वितंडाओं में घिरी और कठमुल्लेपन के जंजाल में फंसी मध्यवर्गीय नैतिकता की नए सिरे से झाड़पोछ होनी चाहिए
बालगंगाधर तिलक ने एक बार कहा था कि ‘तुम्हें कब क्या करना है यह बताना बुद्धि का काम है, पर कैसे करना है यह अनुभव ही बता सकता है।’ किसी ने सच ही कहा है: ‘फल न देगा न सही, छाँव तो देगा तुमको। पेड़ बूढ़ा ही सही, आंगन में लगा रहने दो।’
बुजुर्ग अनुभवों का वह खजाना है जो हमें जीवन पथ के कठिन मोड़ पर उचित दिशा निर्देश करते हैं। बुजुर्ग घर का मुखिया होता है इस कारण वह बच्चों, बहुओं, बेटे-बेटी को कोई गलत कार्य या बात करते हुए देखते हैं तो उन्हें सहन नहीं कर पाते हैं और उनके कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं जिसे वे पसंद नहीं करते हैं। वे या तो उनकी बातों को अनदेखा कर देते हैं या उलटकर जवाब देते हैं। जिस बुजुर्ग ने अपनी परिवार रूपी बगिया के पौधों को अपने खून पसीने रूपी खाद से सींच कर पल्लवित किया है, उनके इस व्यवहार से उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचती है। एक समय था जब बुजुर्ग को परिवार पर बोझ नहीं बल्कि मार्ग-दर्शक समझा जाता था। आधुनिक जीवन शैली, पीढ़ियों में अन्तर, आर्थिक-पहलू, विचारों में भिन्नता आदि के कारण आजकल की युवा पीढ़ी निष्ठुर और कर्तव्यहीन हो गई है। जिसका खामियाजा बुजुर्गों को भुगतना पड़ता है। बुजुर्गों का जीवन अनुभवों से भरा पड़ा है, उन्होंने अपने जीवन में कई धूप-छाँव देखे हैं जितना उनके अनुभवों का लाभ मिल सके लेना चाहिए। गृह-कार्य संचालन में मितव्ययिता रखना, खान-पान संबंधित वस्तुओं का भंडारण, उन्हें अपव्यय से रोकना आदि के संबंध में उनके अनुभवों को जीवन में अपनाना चाहिए जिससे वे खुश होते हैं और अपना सम्मान समझते हैं। बुजुर्ग के घर में रहने से नौकरी पेशा माता-पिता अपने बच्चों की देखभाल व सुरक्षा के प्रति निश्चिंत रहते हैं। उनके बच्चों में बुजुर्ग के सानिध्य में रहने से अच्छे संस्कार पल्लवित होते हैं। बुजुर्गों को भी उनकी निजी जिंदगी में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उनके रहन-सहन, खान-पान, घूमने-फिरने आदि पर रोक-टोक नहीं होनी चाहिए। तभी वे शांतिपूर्ण व सम्मानपूर्ण जीवन जी सकते हैं। बुजुर्गों में चिड़चिड़ाहट उनकी उम्र का तकाजा है। वे गलत बात बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं, इसलिए परिवार के सदस्यों को उनकी भावनाओं व आवश्यकता को समझकर ठंडे दिमाग से उनकी बात सुननी चाहिए। कोई बात नहीं माननी हो तो, मौका देखकर उन्हें इस बात के लिए मना लेना चाहिए कि यह बात उचित नहीं है। सदस्यों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई ऐसी बात न करें जो उन्हें बुरी लगे।
बुजुर्गों के शोषण और उनके खिलाफ हिंसा की वारदात अकेले भारत की समस्या नहीं है। दुनिया भर में ये एक गंभीर समस्या बनकर उभरी है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र ने भी इस बारे में प्रस्ताव दिए हैं, सम्मेलन किए हैं। विभिन्न सामाजिक, आर्थिक कारणों से आज अधिकांशत: एकल परिवार बढ़ रहे हैं। महानगरों में अनेक ऐसे वृद्धजन हैं जिनके बच्चे विदेशों में नौकरियां कर रहे हैं। वे ही माता-पिता, जिन्होंने उन बच्चों को सुरक्षित कर विदेश जाने के योग्य बनाया है, अपनी वृद्धावस्था में पड़ोसियों की मदद के मोहताज हैं। विदेशों में बसे बच्चे उन्हें रुपये तो भेज सकते हैं किन्तु व्यक्तिगत रूप से समय नहीं दे सकते।
बुजुर्गों को जो सुख अपने नाती-पोतों को खिलाने, पढ़ाने, घुमाने में मिलता था, उससे आज वे सर्वथा वंचित होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवारों में सहज ही बच्चों की देखरेख हो जाती थी और आज व्यवसायिक, यांत्रिाक युग में बच्चों की देखरेख हेतु क्रेच (पालनाघर) हैं। बुजुर्गों हेतु ’ओल्डएज हाउस‘ हैं। वर्ष में एक बार ‘ग्रेंड पैरेन्ट्स डे’ मनाकर समाज बुजुर्गों के ॠण से मुक्त होना चाहता है। संस्थागत रूप से ओल्ड एज होम्स में कुछ बच्चे अपने लिये उसी तरह ग्रेंड पैरेन्ट्स मनोनीत करते हैं जिस तरह अनाथ आश्रम के बच्चों को लोग गोद लेते हैं। भौतिकता की अंधी भागदौड़ में वृद्धों के प्रति सम्मान घटा है। सार्वजनिक स्थलों में वृद्धों हेतु अलग लाइनों की कानूनी व्यवस्था से ज्यादा कारगर वृद्धों के प्रति सार्वजनिक सम्मान की भावना के संस्कारों का विकास है। कानूनी रूप से शासन ने वृद्धावस्था पेंशन, रेल एवं बस में किराये पर छूट, वृद्धों हेतु बैंकों में ज्यादा ब्याज दर आदि लाभ सुनिश्चित किये हैं किन्तु समय की वास्तविक मांग है कि वृद्धों के प्रति सम्मान की नैतिकता का विकास किया जाये। वृद्धावस्था जीवन का एक अहं हिस्सा है। वृद्धों की अपनी ही समस्याएं होती हैं। स्वास्थ्य, सार्वजनिक जीवन में उन्हें महत्त्व, परिवार में बड़प्पन वृद्धों हेतु आवश्यक हैं। एक दिन हम सब को वृद्ध होना है। वृद्धों के पास शारीरिक शक्ति की भले ही कमी हो पर उनके पास अनुभवों का खजाना होता है। जनरेशन गैप के चलते वृद्धजन समय से तालमेल बैठाने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। वर्तमान तेजी से बदलते सामाजिक, सांस्द्भतिक मूल्यों के कारण उनका मन आहत होता है। केवल परिवार का प्यार ही उनके इस आहत मन पर मरहम लगा सकता है। समाज में विभिन्न योजनाओं में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिये। घर, परिवार, समाज, और सरकार, हर स्तर पर वृद्धजनों के प्रति सम्मान के प्रयास समय की मांग हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में इस समय कुल आबादी का आठ से नौ फीसदी बुजुर्ग लोग है। बुजुर्गो और वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए कानून हैं, यात्रा, स्वास्थ्य, आवास, चिकित्सा आदि में भी कई तरह की सुविधाएं हैं लेकिन देश की बुजुर्ग आबादी का एक बड़ा तबका ऐसा है जो सरकारी स्कीमों, कल्याण योजनाओं और कार्यक्रमों से वंचित है। उन तक कोई सरकारी इमदाद नहीं पहुंचती, कानूनी मदद तो दूर की कौड़ी है। अब सवाल यही है कि क्या कानून बना भी दिया जाए तो क्या वो काफी है। क्योंकि कानून तो कहने को बहुत हैं। स्त्री अत्याचारों के खिलाफ कानूनों की कमी नहीं लेकिन अगर कानून का ही डर होता तो बलात्कार, और अन्य हिंसाएं रोजाना के स्तर पर न घट रही होतीं। तो इस पाशविकता का मुकाबला कैसे किया जा सकता है। जाहिर है कानून पर अमल के मामले में हमारा सिस्टम सुस्त है। कानूनी कार्रवाइयां एक अंतहीन बोझ और बाजदफा यातना की तरह पीड़ितों पर ही उलटे वार करने लगती हैं। लोग फिर डरते हैं और सहम जाते हैं। वे कानून, अदालत और वकील के चक्करों में फंसना नहीं चाहते। जब तक कानून एक फांस की तरह निर्दोष और साधारण नागरिकों को डराता रहेगा तब तक वो उनकी भलाई के लिए कितना कारगर रह पाएगा, कहना कठिन है। तो कानून पर अमल के तरीकों में बदलाव होना चाहिए, सजा को अंजाम तक पहुंचना चाहिए, तत्परता दिखानी चाहिए और सामाजिक मूल्यों की तोता रटंत करने वाली, धार्मिक वितंडाओं में घिरी और कठमुल्लेपन के जंजाल में फंसी मध्यवर्गीय नैतिकता की नए सिरे से झाड़पोछ होनी चाहिए
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