जीवन का सार

पत्ते पर बैठी जल की एक बूंद नीचे बहती नदी के जल को देख रही थी। हहर-हहर करता जल वेग से आगे बढता जा रहा था। उछलती तरंगों से निकलती अनेक बूंदे खेलती हंसती नाचती पुन: नदी के जल में विलीन हो जाती। पत्ते पर बैठी बूंद उदास थी, " ओह, मैं कितनी अकेली हूं ... कोई मेरे साथ खेलता नहीं .... मेरी सुध नहीं लेता। "

हवा ने उसका रोना सुना। उस पर तरस आया। उसने पत्ते के हिला दिया कि बूंद फिलसकर नदी में जा मिले। बूंद अकर्मण्य थी। वह कसकर पत्ते से चिपक गई, " मुझे गिरने से डर लगता है। वैसे भी नदी के जल में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठूंगी। " नदी जल की बूंद आगे बढ हुई सागर में विलीन होकर शाश्वत में मिल गई। पत्ते पर की बूंद वहीं बैठी-बैठी सूखकर समाप्त हो गई। बूंद की सबसे बडी भूल थी कि वह स्वयं को अपने जन्मदाता जल से अलग मान बैठी। वह भूल गई कि उसका अस्तित्व जल से है। दूसरी भूल थी अर्कमण्यता। वह कर्म करने से डरती रही, अत: नष्ट हो गयी। बूंद और जल का सम्बन्घ आत्मा-परमात्मा के सम्बन्घ के समान है।

इतने बडे विश्व मे बच्चा अकेला आता है। परिवार, समाज में अन्य लोगों से मिल-जुलकर, सीखकर गुवों का विकास करते हुए उन सबका हिस्सा बन जाता है। सबके बीच रहकर भी वह अपना अलग अस्तित्व बनाये रखता है। निरन्तर अच्छे कार्य करता हुआपरमात्मा में विलीन हो जाता है, नदी की बूंदों की तरह।

कृष्ण ने कहा है कि कर्म करना मनुष्य का घर्म है। कर्म किसी इच्छा या उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। शास्त्रों में कहा गया है," ह्रदय से इच्छा रूपी विकार हो निकाल दो। " यह कथन भ्रम की स्थिति पैदा करता है क्योंकि इच्छा रहित ह्रदय सूखे मरूस्थल समान है, जिसमें कर्म रूपी पौघे कीएक भी कोपल नहीं खिलती। इस भ्रम का भी कृष्ण ने गीता में स्पष्ट शब्दों में तोडा है ... मनुष्य! तू कर्म कर। कर्म अपरिहार्य है। तेरे अघिकार में सिर्फ कर्म करना है। उसका फल मिलेगा या नहीं, कैसा फल मिलेगा, इसका निर्णय तेरे अघिकार में नहीं है।

इस कथन की सच्चाई प्रत्येक मनुष्य अनुभव करता है। पुरे मनोयोग से व्यापार शुरू किया, पर व्यापार में सफलता नहीं मिली, मेहनत से पढाई की लेकिन अपेक्षित अंक नही आए। ऎसे अनेक उदाहरण मिलते है। अज्ञानी व्यक्ति अपने अतिरिक्त और सबको दोष देने लगता है। ज्ञानी समझ जाता है, " फल प्राप्ति मेरे अघिकार में नहीं है। " अकर्मण्य व्यक्ति का तर्क उभरता है, " फल मेरे वश में नहीं, तो कर्म क्यों करू। जो प्रारंभ में होगा, मिल जायेगा। " यह असंतगत तर्क है। कर्म मनुष्य का घर्म है। भूखे के सामने खाना रखा है। वह हाथ बढा, निवाला तोडकर मुंह में डालने का कर्म नहीं करता कि किस्मत में होगा, तो खिला देगा। वह भूल गया कि किस्मत में भोजन प्राप्ति लिखी थी। खाने का कर्म तो स्वयं ही करना होगा।

इच्छायें जागकर मनुष्य को कर्म करने क लिए पे्ररित करती है। इच्छा नहीं, तो कर्म नहीं। इच्छाविहीन और विरक्ति, दोनों भाव मनुष्य के भीतर कर्म न करने की सुस्ती पैदा करती है।

दिवाकर के पिता के पास अपार घन-दौलत थी। उसके अक्सर पिता को यह कहते सुना कि उसके पास जितनी दौलत है, आने वाली सात पुश्तें काम न करें, बैठकर खा सकती है। उसके मन में पढ-लिखकर कुछ बनकर, घनार्जन की इच्छा ही खत्म हो गई, जीने के लिए घन चाहिये। पिता के पास इतना घन है ही। मैं क्यों पढे। खाली बैठ समय कैसे गुजरे ? आस-पास सब लोग पढाई में लगे रहते है। अकेला खेले कैसे ? पढाई छोड दी। अच्छी मनोरंजन किताब कैसे बढे ? खाली बैठे टीवी भी कब तक देखे ? पेट में भूख जागे, उससे पहले ही सामने तरह-तरह के व्यंजन परोस दिये जाते। उसकी खाने में अरूचि हो गई। इच्छाविहीन हो वह अर्कमण्य बना। अपने आपमें छटपटाता छोटी उम्र में ही मर गया। इसलिये नदी की बूंदों सरीखा जीवन जियो। नदी जल में मिलकर भी अपना अस्तित्व बचा रखो। जब लहरें उठकर गिरतीं, बूंदे अलग-अलग अठखेलियां करती, आनन्द सहसूस करती, फिर नदी के जल में मिल जाती। अच्छे कर्मो द्वारा अपनी अलग पहचान बनाकर ब्रह्य में लीन होने पर दुनिया याद भी रखती है। मोक्ष भी प्राप्त होता है।

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