हाथी की सवारी कर, महावत ना बन
लोकनाथ तिवारी (Lokenath Tiwary)
हाथी की सवारी करना आसान है यह तो मैं बखूबी जानता हूं। आखिर बचपन में ही उसकी सवारी जो किया है। भैया की बारात में महावत (पिलवान) की मदद से बड़ी आसानी से हौज पर बैठ कर आनंद उठाया था। अब हाथी की सवारी करते करते कोई महावत बनने का मुगालता पाल बैठे तो उसकी हालत भी स्वामी प्रसाद मौर्या जैसी होनी लाजिमी है। इतिहास गवाह है कि सुश्री मायावती ने बहुजन समाज पार्टी में कभी भी अपना वारिस पैदा नही होने दिया। पार्टी छोड़ने से पहले बसपा के नंबर दो नेता स्वामी प्रसाद मौर्या हों या नसीमुद्दीन सिद्दीकी और फिर चाहे वो सतीश चन्द्र मिश्र के रूप में पार्टी के सवर्ण चेहरा ही क्यों ना हों। ये सभी बसपा में किसी कम्पनी के सीईओ की भूमिका से ज्यादा नही दिखे। ऐसे सीईओ जो अपने वेतन के मुताबिक काम करते हैं और निर्णय का काम बॉस यानि सुप्रीमो मायावती के हवाले होता है। भारतीय राजनीति की ये विडम्बना ही है जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के सबसे बड़े राज्य में एक राष्ट्रीय दल की आंतरिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था इतनी कमजोर हो। खैर, ये तो भारत में इंदिरा गांधी के कांग्रेस और फिर दक्षिणी द्रविड़ पार्टियों की जयललिता और करुणानिधि से चलकर पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी तक पहुंची हुई राष्ट्रीय व्यवस्था बन चुकी है। बंगाल में भी यदा कदा कुछ मुकुल राय नुमा नेता ख्ाुद को बड़ा मान बैठते हैं, फिर उनके साथ क्या होता है, यह आप सभी जानते ही हैं। बात अगर उत्तर प्रदेश पर ही केंद्रित रखा जाये तो बसपा के साथ समाजवादी पार्टी में भी मुलायम सिंह यादव परिवार के अलावा किसी की दाल नहीं गलती। भले ही वे अमर सिंह हों या आजम खान। मुलायम से परे होने पर उनको यादव परिवार की कठोरता का सामना करना पड़ता ही है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होने में अब कुछ महीने ही बाकी हैं। देश के इस सबसे बड़े और महत्वपूर्ण सूबे में चुनावों से पहले सियासी ड्रामा भी शुरू हो चुका है। ताज़ा मामला बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्या का पार्टी छोड़ना है। मायावती के सबसे भरोसेमन्द और यूपी के पिछड़े नेताओं में अपनी अलग पहचान रखने वाले इस कद्दावर राजनेता का बसपा से जाना पार्टी के लिए यकीनन एक बड़ा झटका है। मौर्या का बसपा सुप्रीमो पर टिकट बेचने के आरोप और जवाब में मायावती का पलटवार यह सब घटनाक्रम बिलकुल भी नया नही लगता। अतीत में भी विभिन्न दलों, खासकर बसपा के साथ ऐसा कई बार हो चुका है। बाबू सिंह कुशवाहा हों या अखिलेश दास गुप्ता ऐसे सभी नेताओं ने कुछ इसी तरह से ही हाथी की सवारी को मना किया था। अब जबकि आज भारतीय राजनीति एक नए दौर से गुजर रही है और कांग्रेस के पतनकाल के समय नए राष्ट्रीय विकल्प की तलाश है तब किसी राष्ट्रीय दल के साथ ऐसा होना थोड़ा हैरान करता है। हालांकि बसपा के राष्ट्रीय दल के दर्जे की प्रासंगिकता पर भी एक अच्छी बहस की गुंजाइश है।
लौटते हैं मौर्या के मुद्दे पर तो यहां ये कहना आवश्यक है कि मौर्या का पार्टी से इस्तीफा किसी लोकतान्त्रिक नियमों की अनदेखी से हुआ हो इसपर शायद ही किसी को यकीन हो। मायावती का ये कहना वो खुद उन्हें पार्टी से निकालना चाहती थी ये भी एक फ़िल्मी डायलॉग से ज्यादा नही लगता। अब सवाल ये निकल कर आता है फिर कौन से कारण थे जिनकी वजह से मौर्या ने ये कदम उठाया। इस सवाल के कई जवाब हो सकते हैं। सबसे पहला ये कि शायद मौर्या बसपा के गिरते प्रदर्शन और आगामी चुनावों में भी पार्टी की स्थिति को बेहतर नही कर पा रहे थे। 2014 लोकसभा चुनावों में पार्टी का खाता भी न खुलना पार्टी में इस तरह के सभी नेताओं की ग्लानि का कारण था। महत्वकांक्षा के जाल में कोई भी नेता इस स्थिति में बहुत ज्यादा समर्पण होने पर ही पार्टी में रह सकता था। मौर्या में ये समर्पण शायद थोड़ा कम था।
इसके अलावा दूसरा कारण ये भी हो सकता है कि अंदरखाने में सपा के प्रयास सफल रहे हों। मुलायम सिंह को पता है भाजपा के बढ़ते कदम को रोकने के लिए सपा को सभी दांवपेंच लगाने पड़ेंगे। असम चुनावों में भाजपा की जीत ने सपा को अलर्ट कर दिया है। ऊपर से केशव प्रसाद मौर्या का भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनना भी प्रदेश के सबसे बड़े पिछड़े वोट बैंक को भाजपा में मोड़ सकता था। और फिलहाल सपा में यादव को छोड़ अन्य पिछड़ों का कोई तगड़ा नेता नहीं था। सपा के चुनाव प्रबन्धकों ने शायद इसी जाति समीकरण को समझकर मौर्या पर डोरे डालने की कोशिश की, लेकिन मौर्या ने सपा पर भी निशाना साध कर अपनी आगे की रणनीति स्पष्ट कर दी। इस्तीफे के बाद स्वामी का झ्ाुकाव हवा के रुख को भांपते हुए कमल फूल की ओर लग रहा है। हालांकि यह भी आसान नहीं लगता। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या के बनने के बाद इन नेताओं के समर्थकों में टकराहट होने के आसार अधिक हैं।
अब जबकि चुनाव में महज कुछ महीने ही बचे हैं सूबे की सियासत में गर्मी बढ़नी लाजिमी है। सैनिकों के भरोसे तो हिलेंगे ही। ना जाने कितने वजीर पाला बदलते दिख सकते हैं। व्यक्तिगत चाह आज की राजनीति में पार्टी पर हावी होती दिख रही है। लोकतन्त्र में यह सब वाजिब भी है। बस इसी सहूलियत का दुरूपयोग जब सिर्फ और सिर्फ खुद के लिया किया जाता है बात तब बिगड़ती है। फिलहाल इस प्रकरण में आरोप मायावती और स्वामी दोनों पर लगे हैं और यह साफ़ है कि टिकटों के वितरण में भ्रष्टाचार एक आम व्यवस्था भी बन चुकी है। पार्टी कोई भी हो यह सामान्य है। कहीं कम और कहीं ज्यादा, कहीं सीधे तो कहीं दूसरे तरीके से लेकिन पैसों का खेल हर जगह चल रहा है। न जाने कितने मामले इसे लेकर न्यायालय में लम्बित हैं लेकिन इससे देश के राजनितिक दलों पर कोई असर नही दिखता। अपने राष्ट्रीय अस्तित्व को बचाने के प्रयास में बसपा के लिए ये कहीं से अच्छी खबर नही है। स्वामी प्रसाद मौर्या पार्टी के लिए कितने उपयोगी थे इसका अंदाजा मायावती से बेहतर कोई नही जानता। कुछ भी हो, कोई कितना भी तीस मार खां क्यों ना हो पार्टी सुप्रीमो के सिर पर बैठने की कोशिश करेगा तो मुंह की ही खायेगा। आखिर हाथी की सवारी करना और महावत बनना एक समान थोड़े ही है।
हाथी की सवारी करना आसान है यह तो मैं बखूबी जानता हूं। आखिर बचपन में ही उसकी सवारी जो किया है। भैया की बारात में महावत (पिलवान) की मदद से बड़ी आसानी से हौज पर बैठ कर आनंद उठाया था। अब हाथी की सवारी करते करते कोई महावत बनने का मुगालता पाल बैठे तो उसकी हालत भी स्वामी प्रसाद मौर्या जैसी होनी लाजिमी है। इतिहास गवाह है कि सुश्री मायावती ने बहुजन समाज पार्टी में कभी भी अपना वारिस पैदा नही होने दिया। पार्टी छोड़ने से पहले बसपा के नंबर दो नेता स्वामी प्रसाद मौर्या हों या नसीमुद्दीन सिद्दीकी और फिर चाहे वो सतीश चन्द्र मिश्र के रूप में पार्टी के सवर्ण चेहरा ही क्यों ना हों। ये सभी बसपा में किसी कम्पनी के सीईओ की भूमिका से ज्यादा नही दिखे। ऐसे सीईओ जो अपने वेतन के मुताबिक काम करते हैं और निर्णय का काम बॉस यानि सुप्रीमो मायावती के हवाले होता है। भारतीय राजनीति की ये विडम्बना ही है जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के सबसे बड़े राज्य में एक राष्ट्रीय दल की आंतरिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था इतनी कमजोर हो। खैर, ये तो भारत में इंदिरा गांधी के कांग्रेस और फिर दक्षिणी द्रविड़ पार्टियों की जयललिता और करुणानिधि से चलकर पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी तक पहुंची हुई राष्ट्रीय व्यवस्था बन चुकी है। बंगाल में भी यदा कदा कुछ मुकुल राय नुमा नेता ख्ाुद को बड़ा मान बैठते हैं, फिर उनके साथ क्या होता है, यह आप सभी जानते ही हैं। बात अगर उत्तर प्रदेश पर ही केंद्रित रखा जाये तो बसपा के साथ समाजवादी पार्टी में भी मुलायम सिंह यादव परिवार के अलावा किसी की दाल नहीं गलती। भले ही वे अमर सिंह हों या आजम खान। मुलायम से परे होने पर उनको यादव परिवार की कठोरता का सामना करना पड़ता ही है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होने में अब कुछ महीने ही बाकी हैं। देश के इस सबसे बड़े और महत्वपूर्ण सूबे में चुनावों से पहले सियासी ड्रामा भी शुरू हो चुका है। ताज़ा मामला बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्या का पार्टी छोड़ना है। मायावती के सबसे भरोसेमन्द और यूपी के पिछड़े नेताओं में अपनी अलग पहचान रखने वाले इस कद्दावर राजनेता का बसपा से जाना पार्टी के लिए यकीनन एक बड़ा झटका है। मौर्या का बसपा सुप्रीमो पर टिकट बेचने के आरोप और जवाब में मायावती का पलटवार यह सब घटनाक्रम बिलकुल भी नया नही लगता। अतीत में भी विभिन्न दलों, खासकर बसपा के साथ ऐसा कई बार हो चुका है। बाबू सिंह कुशवाहा हों या अखिलेश दास गुप्ता ऐसे सभी नेताओं ने कुछ इसी तरह से ही हाथी की सवारी को मना किया था। अब जबकि आज भारतीय राजनीति एक नए दौर से गुजर रही है और कांग्रेस के पतनकाल के समय नए राष्ट्रीय विकल्प की तलाश है तब किसी राष्ट्रीय दल के साथ ऐसा होना थोड़ा हैरान करता है। हालांकि बसपा के राष्ट्रीय दल के दर्जे की प्रासंगिकता पर भी एक अच्छी बहस की गुंजाइश है।
लौटते हैं मौर्या के मुद्दे पर तो यहां ये कहना आवश्यक है कि मौर्या का पार्टी से इस्तीफा किसी लोकतान्त्रिक नियमों की अनदेखी से हुआ हो इसपर शायद ही किसी को यकीन हो। मायावती का ये कहना वो खुद उन्हें पार्टी से निकालना चाहती थी ये भी एक फ़िल्मी डायलॉग से ज्यादा नही लगता। अब सवाल ये निकल कर आता है फिर कौन से कारण थे जिनकी वजह से मौर्या ने ये कदम उठाया। इस सवाल के कई जवाब हो सकते हैं। सबसे पहला ये कि शायद मौर्या बसपा के गिरते प्रदर्शन और आगामी चुनावों में भी पार्टी की स्थिति को बेहतर नही कर पा रहे थे। 2014 लोकसभा चुनावों में पार्टी का खाता भी न खुलना पार्टी में इस तरह के सभी नेताओं की ग्लानि का कारण था। महत्वकांक्षा के जाल में कोई भी नेता इस स्थिति में बहुत ज्यादा समर्पण होने पर ही पार्टी में रह सकता था। मौर्या में ये समर्पण शायद थोड़ा कम था।
इसके अलावा दूसरा कारण ये भी हो सकता है कि अंदरखाने में सपा के प्रयास सफल रहे हों। मुलायम सिंह को पता है भाजपा के बढ़ते कदम को रोकने के लिए सपा को सभी दांवपेंच लगाने पड़ेंगे। असम चुनावों में भाजपा की जीत ने सपा को अलर्ट कर दिया है। ऊपर से केशव प्रसाद मौर्या का भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनना भी प्रदेश के सबसे बड़े पिछड़े वोट बैंक को भाजपा में मोड़ सकता था। और फिलहाल सपा में यादव को छोड़ अन्य पिछड़ों का कोई तगड़ा नेता नहीं था। सपा के चुनाव प्रबन्धकों ने शायद इसी जाति समीकरण को समझकर मौर्या पर डोरे डालने की कोशिश की, लेकिन मौर्या ने सपा पर भी निशाना साध कर अपनी आगे की रणनीति स्पष्ट कर दी। इस्तीफे के बाद स्वामी का झ्ाुकाव हवा के रुख को भांपते हुए कमल फूल की ओर लग रहा है। हालांकि यह भी आसान नहीं लगता। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या के बनने के बाद इन नेताओं के समर्थकों में टकराहट होने के आसार अधिक हैं।
अब जबकि चुनाव में महज कुछ महीने ही बचे हैं सूबे की सियासत में गर्मी बढ़नी लाजिमी है। सैनिकों के भरोसे तो हिलेंगे ही। ना जाने कितने वजीर पाला बदलते दिख सकते हैं। व्यक्तिगत चाह आज की राजनीति में पार्टी पर हावी होती दिख रही है। लोकतन्त्र में यह सब वाजिब भी है। बस इसी सहूलियत का दुरूपयोग जब सिर्फ और सिर्फ खुद के लिया किया जाता है बात तब बिगड़ती है। फिलहाल इस प्रकरण में आरोप मायावती और स्वामी दोनों पर लगे हैं और यह साफ़ है कि टिकटों के वितरण में भ्रष्टाचार एक आम व्यवस्था भी बन चुकी है। पार्टी कोई भी हो यह सामान्य है। कहीं कम और कहीं ज्यादा, कहीं सीधे तो कहीं दूसरे तरीके से लेकिन पैसों का खेल हर जगह चल रहा है। न जाने कितने मामले इसे लेकर न्यायालय में लम्बित हैं लेकिन इससे देश के राजनितिक दलों पर कोई असर नही दिखता। अपने राष्ट्रीय अस्तित्व को बचाने के प्रयास में बसपा के लिए ये कहीं से अच्छी खबर नही है। स्वामी प्रसाद मौर्या पार्टी के लिए कितने उपयोगी थे इसका अंदाजा मायावती से बेहतर कोई नही जानता। कुछ भी हो, कोई कितना भी तीस मार खां क्यों ना हो पार्टी सुप्रीमो के सिर पर बैठने की कोशिश करेगा तो मुंह की ही खायेगा। आखिर हाथी की सवारी करना और महावत बनना एक समान थोड़े ही है।
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