जोगी जी धीरज नाहि धरे

शरद पवार व ममता बनर्जी को अपवाद माना जाये तो अब तक अपनी मदर पार्टी को छोड़कर अलग होनेवालों को सफलता कम ही मिली है। हां ज्योति से ज्वाला बनने का क्षणिक सुख उनको अवश्य मिलता है। अब छत्तीसगढ़ के छत्रप का क्या हाल होगा यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा। छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी आज से ठीक तीस वर्ष पूर्व इसी जून माह में मध्यप्रदेश से राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। कांग्रेस में अपनी राजनीतिक यात्रा के तीन दशक पूरे करने के अवसर पर श्री जोगी ने पार्टी हाईकमान को संदेश भेजा है कि वे पृथक क्षेत्रीय दल बनाने की राह पर हैं। वे जितने जल्दी अपनी इस धमकी पर अमल करें, उतना ही बेहतर। उनके लिए भी व मातृसंस्था के लिए भी। उनके लिए इसलिए कि ढाई साल बाद होने वाले चुनावों में यदि किसी दल को बहुमत न मिला तो किंगमेकर की भूमिका निभाने का मौका उन्हें मिल जाएगा। कौन कहे कि वे किंग ही न बन जाएं! कांग्रेस के लिए जोगी का अलग हो जाना इस लिहाज से मुआफिक होगा कि पार्टी को रोज-रोज की अन्तर्कलह तथा भीतरघात से छुटकारा मिल जाएगा।
छत्तीसगढ़ राज्य का गठन होने पर पार्टी में भारी विरोध के बावजूद हाईकमान की सदिच्छा से अजीत जोगी को मुख्यमंत्री का पद मिला था। विडंबना देखिए कि तब म.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को न सिर्फ मन मसोस कर यह निर्णय स्वीकार करना पड़ा, बल्कि दिग्गज विद्याचरण शुक्ल के आक्रामक तेवरों का भी सामना करना पड़ा। पाठकों को याद हो कि सिंह-जोगी के बीच का द्वंद्व नया नहीं था। श्री जोगी ने एक समय मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की इच्छा पाल ली थी। उन्होंने भोपाल में तथा अन्यत्र दिग्विजय सिंह के खिलाफ सडक़ों पर उतर प्रदर्शन भी किए थे। ााहिर है कि दोनों नेताओं के बीच इससे कटुता उत्पन्न होना ही थी। ऐसे में सोनिया जी ने जब छ.ग. की पतवार श्री जोगी के हाथों सौंपी, तो उसे दिग्विजय सिंह ने किस रूप में लिया, वे किस हद तक आहत हुए और उसका क्या परिणाम हुआ, यह सब अलग विवेचन का विषय है। हमें यह भी ध्यान आता है कि श्री सिंह व श्री जोगी दोनों वरिष्ठ राजनेता अर्जुन सिंह के विश्‍वासभाजन थे, किंतु समय आने पर उनका साथ किसी ने न दिया। यह भी एक अलग कहानी है। अजीत जोगी ने मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पारी की शुरुआत धमाकेदार की थी। उन्होंने तत्काल म.प्र. विद्युत मंडल का विखंडन कर एक झटके में छत्तीसगढ़ को पावर सरप्लस राज्य बना दिया था। अपने कार्यकाल में उन्होंने शराब ठेकेदारों को प्रशासन पर हावी नहीं होने दिया, लालबत्ती निकालने व अन्य तरह से सादगी की मिसाल पेश की, सुबह 7 बजे भी फोन करो तो मुख्यमंत्री स्वयं कई बार फोन उठाकर आश्‍चर्य में डाल देते थे, और ऐसी ही कई बातें। लेकिन साल-डेढ़ साल बीतते न बीतते स्थितियां बदलने लगीं। भारतीय बल्कि एशियाई राजनीति में वंश परंपरा कोई बुरी बात नहीं समझी जाती। इस समय- सिद्ध परिपाटी का अनुसरण करने में जोगीजी ने भी देर नहीं की। इससे अनुमान हुआ कि श्री जोगी अपने भविष्य के प्रति निश्‍चिंत हैं। शायद इसी कारण से इस बीच दो-तीन ऐसी घटनाएं हुईं जिनका आकलन करने में वे चूक गए!
यह मानना होगा कि अजीत जोगी जीवट के धनी हैं। 2003 के विधानसभा चुनावों में हार को जीत में तब्दील करने के लिए एक बार फिर भाजपा विधायकों के दलबदल का प्रयत्न नतीजे घोषित होने के तुरंत बाद किया गया। यद्यपि वह फ्लॉप शो ही साबित हुआ। इसके बाद 2004 के आम चुनावों में श्री जोगी दूसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए। चुनाव के दौरान ही वे भीषण रूप से दुर्घटनाग्रस्त हुए। इस दुर्घटना के कारण वे विगत बारह वर्ष से व्हील चेयर पर हैं। लेकिन इससे उनके जुझारूपन में कोई कमी नहीं आई है। बहरहाल कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। यद्यपि ऐसी चर्चाएं पहले भी उठती रही हैं पर इस बार शायद यह चर्चा सत्य सिद्ध हो जाए। ऐसा माना जाता है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अजीत जोगी से रुष्ट हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल तथा विपक्ष के नेता टी.एस. सिंहदेव जिस आत्मविश्‍वास के साथ श्री जोगी पर आक्रमण करते हैं उसके पीछे यही कारण बताया जाता है।
यह बात भी ध्यान में आती है कि भूपेश बघेल के पिता किसान नेता नंदकुमार बघेल को जोगी जी ने जेल में डाला था, दूसरी ओर टी.एस. सिंहदेव के घर अंबिकापुर में ही भरी सभा में उन्हें अपमानित करने की कोशिश भी की थी। यह भी उल्लेखनीय है कि भूपेश दिग्विजय सिंह के प्रिय पात्र रहे हैं तथा दिग्विजय और सिंहदेव के बीच पारिवारिक तौर पर मधुर रिश्ते रहे हैं। यह सबको पता है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपने महासचिव दिग्विजय सिंह पर काफी एतबार करते हैं। इस विषम परिस्थिति में अगर अजीत जोगी नई राह का अन्वेषण करना चाहते हैं तो उनकी व्यथा और महत्वाकांक्षा दोनों के चलते इसे स्वाभाविक ही माना जाएगा। यह संभव है कि अपनी धमकी पर अमल करने के बाद  जोगीजी कांग्रेस विधायक दल को तोडऩे की कोशिश करें। इससे विधानसभा के भीतर कांग्रेस की स्थिति में बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। जोगीजी के साथ शायद आधा दर्जन विधायक ही जाएंगे। उन पर निष्कासन का खतरा होगा। ऐसे मेें विधानसभा अध्यक्ष का निर्णय महत्वपूर्ण होगा। संगठन में अवश्य जोगीजी के समर्थकों की संख्या अच्छी-खासी है लेकिन वे अगर पार्टी में जाते हैं तो कांग्रेस को कितना नुकसान होगा, इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। मेरा अपना ख्याल है कि पार्टी छोड़ने वालों को सामान्यत: जनता का विश्‍वास प्राप्त नहीं होता। शरद पवार व ममता बनर्जी दो हाल के अपवाद हैं, लेकिन जहां वीसी शुक्ल हार गए हों, क्या वहां जोगी सफल हो सकेंगे? 

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