प्राणियों का दुश्मन है मानव


लोकनाथ तिवारी (Lokenath Tiwary)
पृथ्वी पर अपने आप को सबसे उम्दा जीव माननेवाला मानव अपनी करतूतों से अब दूसरे प्राणियों के लिए घातक होता जा रहा है। मानव की लोभ लिप्सा के शिकार अन्य जीवों को होना पड़ रहा है। हम न केवल उनका भक्षण कर रहे हैं बल्कि उनके रहन सहन को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं। यहां तक कि हम अपने रहने के लिए उनके इलाके पर दखल करते जा रहे हैं। मानवों की आबादी तो बढ़ती जा रही है लेकिन अन्य जीवों पर संकट बढ़ता जा रहा है।  डब्लूडब्लूएफ की ताजा रिपोर्ट ने हमें एक बार फिर याद दिलाया है कि इस धरती पर जीवन कितना कठिन होता जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक 2020 तक वन्य जीवों का दो तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा विलुप्त हो जाएगा। डब्लूडब्लूएफ यानी वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर की 2016 की रिपोर्ट विस्तार से बताती है कि प्रजातियों के लुप्त होने का यह सिलसिला कोई नया नहीं है। 1970 से 2012 के बीच मछलियों, पक्षियों, स्तनधारियों, उभयचरों और सरीसृप जंतुओं का 58 फीसदी हिस्सा समाप्त हो गया।
इसी अवधि में स्थलीय जंतुओं की आबादी में 38 फीसदी, मीठे पानी में रहने वाले जीवों की आबादी में 81 फीसदी और समुद्री जीवों की आबादी में 36 फीसदी की गिरावट आई। भारत का हाल भी कुछ खास अलग नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 41 फीसदी स्तनधारियों, 46 फीसदी सरीसृपों, 57 फीसदी उभयचरों और नदी-तालाबों की 70 फीसदी मछलियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। बड़े पैमाने पर जारी इस विनाश की सबसे बड़ी वजह यह है कि इन जीवों के रहने का स्थान, इनका परिवेश इनसे छिनता जा रहा है। रिपोर्ट में ही इस बात का जिक्र है कि साल 2000 तक उष्ण कटिबंधीय और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के चौड़ी पत्तियों वाले जंगलों का 48.5 फीसदी हिस्सा मनुष्यों के इस्तेमाल में आने लगा था। यानी ये क्षेत्र जिन वन्य जीवों का प्राकृतिक आवास हुआ करते थे, वे पूरी तरह बेघर होते चले गए। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पूरी दुनिया में मनुष्यों का दखल इस कदर बढ़ गया कि बाकी जीवों के लिए प्रतिकूलता बढ़ती गई। मानव आबादी में आई आश्‍चर्यजनक बढ़ोतरी के आंकड़े भी इस बात को स्पष्ट कर देते हैं। 1900 में पूरी दुनिया में इंसानी आबादी 1 अरब 60 करोड़ थी, जो आज बढ़कर 7 अरब 30 करोड़ हो गई है। आबादी बढ़ने के साथ-साथ हम अपनी सुविधाएं बढ़ाने में ऐसे मशगूल हुए कि भूल ही गए, यह पृथ्वी सिर्फ हमारी ही नहीं, बाकी तमाम जीव-जंतुओं की भी है। बहरहाल, ऐसी रिपोर्टें तो नियमित अंतराल से आती रहती हैं। असल सवाल यह है कि हमारी सरकारें और खुद हम गैर-इंसानी दुनिया की भी फिक्र करने की जरूरत कभी महसूस कर पाएंगे या नहीं।

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