कट्टरपंथ का बोलबाला

अमेरिकी च्ाुनाव ने एक बार फिर साबित कर दिया कि कट्टरपंथ के प्रति आम लोगों के रवैये में परिवर्तन आया है। तमाम विरोधों को दरकिनार कर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा व डोनाल्ड ट्रंप के बीच बैठक में सौजन्यतामूलक माहौल में चर्चा हुई। ओबामा ने बताया है कि उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के बाद व्हाइट हाउस में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ पहली मुलाकात में कई मुद्दों पर विस्तृत बातचीत की है। उनकी पहली प्राथमिकता यह सुनिश्‍चित करना है कि अगले दो महीने में सत्ता का हस्तांतरण सहज हो। उन्होंने कहा कि अगर ट्रंप सफल होंगे तो देश सफल होगा। चुनाव के दौरान अमेरिकी समाज में कई मुद्दों पर मतभेद सामने आने पर ओबामा ने कहा, हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है कि पार्टी और राजनीतिक वरीयताओं की परवाह किए बिना सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए सब एक साथ आएं। ट्रंप ने कहा कि ओबामा के साथ बातचीत उम्मीद से अधिक लंबी चली। इसमें विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की गई। ट्रंप ने भविष्य में ओबामा के साथ काम करने में दिलचस्पी दिखाई। हालांकि अमेरिका में चुनाव नतीजे आने के बाद से ही विजयी उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। लोग ‘घृणा और नहीं’ और ‘हमारे राष्ट्रपति नहीं हैं ट्रंप’ जैसे नारे लगाते हुए अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे हैं। ये लोग जानते हैं कि इन प्रदर्शनों का कोई फायदा नहीं है, फिर भी वे स्वत: स्फूर्त ढंग से अपने घरों से बाहर आ गए। दरअसल, अमेरिका में एक बड़ा तबका ट्रंप की जीत को पचा नहीं पा रहा। उसके लिए यह एक शॉक की तरह है। कारण यह कि ट्रंप उन तमाम मूल्यों के खिलाफ खड़े दिख रहे हैं, जिन्हें अमेरिकी समाज ने काफी जद्दोजहद के बाद हासिल किया था, और आज उन्हीं की वजह से अमेरिका की एक अलग पहचान है। एक औसत अमेरिकी मानता रहा है कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की नींव को अमेरिका ने ही सबसे ज्यादा सींचा है। उसी ने दुनिया को जनतंत्र के साथ जीने का सलीका सिखाया है, उसको कई सारी रूढ़ियों और कठमुल्लेपन से बाहर निकाला है।
अमेरिका न सिर्फ शिक्षा और संस्कृति में अग्रणी राष्ट्र है, बल्कि वह दुनिया भर के अलग-अलग समुदायों, नस्लों और पेशों के लिए सबसे सुरक्षित ठिकाना है। ट्रंप ने उम्मीदवारी का दावा ठोंकते ही जिस तरह आप्रवासियों और मुसलमानों के खिलाफ बयान दिए, उससे अमेरिका के लोकतांत्रिक आदर्शों को ठेस पहुंची। महिलाओं को लेकर उनकी फूहड़ टिप्पणियों से अमेरिकी भद्रता को गहरा आघात लगा।
अमेरिका को हर मानक पर श्रेष्ठ समझने वाले लोग ट्रंप से आहत हैं, क्योंकि उनकी छवि अमेरिका के पारंपरिक राजनेताओं की इमेज से मेल नहीं खाती। लेकिन उन्हें और हम सबको एक बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए। वह यह कि जनतांत्रिक व्यवस्था तभी कारगर हो सकती है, जब समाज का हर वर्ग एक हद तक अपने जीवन से संतुष्ट हो, और खुद को जनतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा मानता हो। आज अमेरिका ही नहीं, दुनिया का लगभग हर समाज इस कसौटी पर विफल सिद्ध हो रहा है। डॉनल्ड ट्रंप मंदी के बाद से अनेक रूपों में जाहिर हो रही अमेरिकी लोकतंत्र की असफलता की उपज हैं। उन्हें अमेरिकी महानता में आई दरकन का सीधा फायदा मिला है।
बतौर बिजनसमैन, उन्होंने एक ही नजर में ताड़ लिया कि अमेरिकी समाज आज कैसी बेचैनी से गुजर रहा है। अपनी बदजुबानी के जरिये उन्होंने सतह की हलचलों को व्यक्त करना शुरू कर दिया। हिलेरी की परिष्कृत भाषा लोगों को उस तरह इंगेज नहीं कर पाई। अमेरिकी भद्रता को चूर-चूर करने के बावजूद लोगों ने ट्रंप को चुना, क्योंकि वे महान आदर्शों की बात करने वालों के खोखलेपन से उकता गए हैं। उन्होंने ट्रंप पर एक दांव खेला है। यह सोचकर कि शायद यह मुंहफट इंसान लोगों के रोजी-रोजगार की दिशा में सचमुच कुछ कर जाए। गौर कीजिए, ट्रंप जैसे नेता अभी फिलीपींस से लेकर तुर्की तक अन्य देशों में भी उभर रहे हैं। उन्हें सफलता इसीलिए मिल रही है, क्योंकि लोकतांत्रिक आदर्श कमजोर पड़ रहे हैं। यह कोई अच्छा संकेत नहीं है।

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