दलबदल के डर से स्टांप पेपर पर हस्ताक्षर

दलबदल के डर से स्टांप पेपर पर हस्ताक्षर
उत्तराखंड के बाद अब पश्‍चिम बंगाल में कांग्रेस को बगावत का डर सता रहा है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने हाल के इलेक्शन में जीते सभी 44 विधायकों से स्टांप पेपर पर साइन कराए हैं। इसे एक तरह से सोनिया और राहुल गांधी के प्रति वफादारी बनाए रखने का बॉन्ड माना जा रहा है। जबकि जनतांत्रिक राजनीति में दलबदल अपने आप में कोई बुराई नहीं है। एक  समाज में हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है और वह उसे कभी भी बदलने का अधिकार रखता है। अगर विचारों में परिवर्तन को प्रारंभ से ही बुराई मान लिया जाए तो यह उस व्यक्ति के अधिकार का हनन या उसमें हस्तक्षेप करना होगा। स्वतंत्र भारत की राजनीति में दलबदल के दर्जनों उदाहरण हमारे सामने हैं, जो इस अधिकार की पुष्टि करते हैं। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी याने राजाजी भारत के शीर्ष राजनेता थे। वे लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहे। कांग्रेस ने ही उन्हें देश का प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल बनाया तथा बाद में मद्रास प्रांत का मुख्यमंत्री भी। ऐसे उद्भट विद्वान व विचारशील नेता ने भी एक दिन अपनी मातृसंस्था छोड़कर स्वतंत्र पार्टी की स्थापना कर ली। एक अन्य विद्वान राजनेता तथा पुराने कांग्रेसी मीनू मसानी उनके सबसे विश्‍वस्त एवं प्रमुख सहयोगी के रूप में इस पार्टी में आए। इसके पूर्व कांग्रेस के भीतर समाजवादी धड़े के नेताओं के पार्टी छोडऩे व नई पार्टी बनाकर कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लडऩे के उदाहरण भी हमारे सम्मुख हैं। पं. नेहरू के प्रिय पात्र रफी अहमद किदवई ने पार्टी छोड़ी और फिर कुछ समय बाद कांग्रेस में यह कहते हुए लौट आए कि वहां जी नहीं लगता। यह स्पष्ट है कि किसी राजनैतिक कार्यकर्ता या नेता ने कभी वैचारिक मतभेदों के कारण पार्टी छोड़ी तो कभी व्यक्तिगत कारणों से। देखा जाए तो सन् 1967 के आम चुनावों तक दलबदल को राजनीतिक प्रक्रिया का एक सामान्य अंग ही माना जाता था। वह एक रोग या अनिवार्य बुराई है, यह धारणा उस वर्ष विधानसभा चुनावों के बाद जो कुछ हुआ, उसके कारण विकसित हुई, जो आज एक भयावह व चिंताजनक रूप में देश के  सामने दिखाई दे रही है। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने कांग्रेस आलाकमान से अनुमति मांगी थी कि 37 विधायकों द्वारा थोक में दलबदल करने के कारण वे राज्यपाल से विधानसभा भंग कर नए चुनाव की सिफारिश कर सकें। अगर श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें यह अनुमति दे दी होती तो मध्यप्रदेश के बाद बाकी प्रदेशों में भी इसका अनुकरण होता तथा अपनी महत्वाकांक्षा के चलते दलबदल कर सत्तासुख चाहने वालों के मंसूबों पर एक सिरे से पानी फिर जाता। किंतु तब इंदिराजी को यशवंतराव चव्हाण ने यह भरोसा दिला दिया था कि इसी तरह दलबदल करवाकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन सकती है और इस धोखे में उन्होंने मिश्रजी की बात नहीं मानी। देश में तब से गयाराम-आयाराम का जो खेल चल रहा है, उसे सब देख रहे हैं।
राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री काल में इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया, तब संसदीय जनतंत्र में जड़ें जमा चुके दलबदल के रोग को समाप्त करने के लिए दलबदल विरोधी कानून संसद से पारित हुआ। इस कानून में सबसे बड़ी कमजोरी या विसंगति यह थी कि व्यक्तिगत दलबदल पर तो रोक लगाई गई किंतु थोक में ऐसा करने को कानूनी मान्यता दे दी गई। प्रारंभ में प्रावधान था कि यदि किसी पार्टी के एक तिहाई विधायक दल बदलते हैं तो यह कानून के दायरे में नहीं आएगा। आगे चलकर इसे पचास प्रतिशत और अब दो तिहाई कर दिया गया। लेकिन मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की वाला शेर यहां मौजूं सिद्ध हुआ। उस समय समाजवादी नेता मधु लिमये एकमात्र सांसद थे जिन्होंने राजीव सरकार के विधेयक का विरोध किया था कि इससे दलबदल नहीं रुकेगा। तब कम से कम हिंदी में देशबन्धु ही एकमात्र अखबार था जिसने मधुजी के तर्कों से सहमति रखते हुए बिल के विरोध में टिप्पणी की थी। हमारा आज भी मानना है कि अच्छे इरादे से पेश विधेयक में नाहक कानूनी दांव-पेंच फंसा दिए गए, जिसकी तोड़ भी वैसे ही दांव-पेंचों के द्वारा ढूंढ ली गई। विगत तीस वर्षों में अनेक प्रदेशों में दल-बदल के अनेक कुत्सित प्रयास जनता ने देखे हैं। जो बड़े प्रदेश हैं, वहां स्थिति बेहतर है, लेकिन अपेक्षाकृत छोटे प्रदेशों में जहां विधानसभा में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम है, हालात चिंताजनक ही कहे जाएंगे। इधर केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने भी मानो तय कर लिया है कि कल तक कांग्रेस ने जो किया, वह हम भी करेंगे। इसमें इतना संशोधन कर देना उचित होगा कि जो रास्ता पहले-पहल भाजपा ने दिखाया, मसलन म.प्र. में श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के संरक्षण में, वही रास्ता कांग्रेस ने अपनाया और आगे बढ़ते हुए भाजपा पुन: अपने पुराने मार्ग पर आ गई है। अरुणाचल, मणिपुर, उत्तराखंड में हाल के दिनों में जो राजनैतिक हलचलें देखने मिलीं, वे इसका सबूत हैं। दलबदल कानून में संशोधन हो कि जो भी दलबदल करे वह अपनी सीट से तुरंत इस्तीफा देकर नई पार्टी से चुनाव लड़े।

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