इस च्ाुनाव में ममता की जीत के मायन

इस बार ममता बनर्जी को अपने दम पर बहुमत मिली है। छह चरणों में हुए मैराथन च्ाुनाव के दौरान प्रचार से लेकर सारी रणनीतियों को बनाने का दारोमदार जिसके कंधे पर था वह ममता बनर्जी ही थीं। स्टार प्रचारक कहें या कुशल रणनीतिकार, हर भ्ाूमिका में उनकी प्रतिष्ठा दाव पर लगी थी। केंद्र की भाजपा सरकार भी उनको टार्गेट कर रही थी। च्ाुनाव के दौरान एक के बाद एक स्टिंग वीडियो जारी किये गये, जिसमें तृणमूल के वरिष्ठ नेताओं को सरेआम पैसे लेते हुए दिखाया गया। फ्लाईओवर हादसे के बाद भी विपक्ष ने इसके लिए तृणमूल कांग्रेस को जिम्मेवार ठहराया। पिछली बार अर्थात 2011 में हुए पश्‍चिम बंगाल राज्य विधान सभा च्ाुनाव में ममता बनर्जी ने 34 साल से लगातार सत्ता में रही वाममोर्चा सरकार को उखाड़ फेंका था। उस समय केंद्र में सत्ता धारी यूपीए सरकार का तृणमूल को भरपूर समर्थन मिला था। इस बार परिस्थितियां बिलकुल विपरीत थीं। सारदा घोटाला और नारदा स्टिंग ऑपरेशन में घिरी तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी भी लांछन से उद्विग्न हो गयी थीं। आखिरकार दक्षिण कोलकाता की एक रैली को संबोधित करते हुए उन्हें कहना पड़ा था कि  दो थप्पड़ मार लो, लेकिन चोर मत कहो। जनता ने उनकी अपील स्वीकार कर ली। एक बार फिर ममता बनर्जी की सरकार को दो तिहाई से अधिक बहुमत से जीत दिलायी। यह चुनाव ममता ने अपने दम पर लड़ा और चिर प्रतिद्वंद्वी वामपंथियों और कांग्रेस के एकजुट होने से भी उनके अभियान पर कोई असर नहीं हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत कई केंद्रीय मंत्रियों और राज्य स्तर के भाजपा नेताओं ने ममता को उनके राज्य में घेरने का प्रयास किया लेकिन अंतत: उन्हें रोकने के सारे प्रयास विफल साबित होते लग रहे हैं। राजनीतिक विश्‍लेषक राज्य में वाम मोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंकने को उनकी राजनीतिक यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। हालांकि सत्ता में आने के बाद रूग्ण उद्योग और ठहरी आर्थिक वद्धि से त्रस्त पश्‍चिम बंगाल को निकालना उनकी सबसे बड़ी चुनौती होगी। इस बार पश्‍चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की जोरदार वापसी से 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तस्वीर भी दिखने लगी है। ममता की जीत ने जनता के बीच उनकी पैठ को साबित किया है। लोकसभा चुनाव के वक्त तीसरे विकल्प के रूप में ममता की दस्तक को भी पक्का कर दिया है। तीसरे मोर्चे के गठन की स्थिति में प्रधानमंत्री पद के लिए यदि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नाम पर चर्चा होती है तो ममता बनर्जी का नाम भी उससे कहीं ज्यादा मजबूती से सामने आएगा। क्योंकि बिहार की सत्ता में नीतीश कुमार भले ही लगातार तीसरी बार आए हों, लेकिन राजद और कांग्रेस पार्टी का साथ नहीं मिलता तो बिहार का चुनाव परिणाम कुछ और होता।
दूसरी तरफ ममता बनर्जी पहली बार से कहीं ज्यादा मजबूती से पश्‍चिम बंगाल की सत्ता में दोबारा आई हैं। ऐसे में तीसरे मोर्चे के गठन की स्थिति में ममता को हल्के में लेना आसान नहीं होगा।
राष्ट्रीय राजनीति में ममता की मजबूती का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हर छोटे-बड़े मुद्दे पर निशाना साधने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिलने के लिए जहां गैर एनडीए नेता पहुंचते हैं, वहीं ममता के दिल्ली में होने पर खुद केजरीवाल उनसे मिलने जाते हैं। जबकि अघोषित तरीके से केजरीवाल भी इस रेस में शामिल हैं।
केजरीवाल और नीतीश की तुलना में ममता की मजबूती वर्ष 2014 में हुए लोकसभा परिणाम से भी दिखती है। उस वक्त बिहार और दिल्ली की लोकसभा सीटों पर मोदी लहर की छाप साफ दिखी थी, लेकिन पश्‍चिम बंगाल में भाजपा को सिर्फ दो सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। जिसका श्रेय ममता को देना गलत नहीं होगा।
ज्ञात हो कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में 13 राजनीतिक पार्टियां एक मंच पर आकर तीसरे मोर्चे के गठन को अंजाम देने में जुटी थी। सबकुछ तय भी हो गया था, लेकिन अंत में पूरी योजना हवा-हवाई साबित हुई थी। क्योंकि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर सहमति नहीं बन पाई थी। इस बार की विजय से निश्‍चित तौर पर ममता बनर्जी राष्ट्रीय परिदृश्य पर मजब्ाूत नेता के रूप में उभरेंगी। गैर भाजपा व गैर कांग्रेस पार्टी के गठबंधन की कवायद श्ाुरू होने पर निश्‍चित तौर पर ममता बनर्जी का नाम शीर्ष नेताओं में श्ाुमार होगा। 

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