संकटग्रस्त कांग्रेस की समस्या अंदरूनी


पूर्वोत्तर में कांग्रेस के लिए मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। पूर्वोत्तर के सात राज्यों में से अब सिर्फ दो राज्यों मेघालय और मणिपुर में कांग्रेस की सरकार है। हाल के विधानसभा चुनाव में वह असम में हारी है और इससे कुछ ही दिन पहले अरुणाचल प्रदेश में उसके बागी विधायकों ने सरकार गिरा कर अपनी सरकार बनाई है। कांग्रेस के बागी विधायकों की सरकार को भाजपा का समर्थन है। इसके बाद मणिपुर में भी बागियों ने सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की थी, लेकिन समय रहते कांग्रेस नेतृत्व ने इसे संभाला और ओकरम इबोबी सिंह की सरकार बची। लेकिन अब मेघालय में सरकार के सामने संकट खड़ा होता दिख रहा है। मेघालय में तूरा लोकसभा सीट के नतीजों के बाद प्रदेश में अस्थिरता बढ़ने का खतरा पैदा हो गया है। यह सीट एनपीपी के नेता और पूर्व स्पीकर पीए संगमा के निधन से खाली हुई है। परंपरागत रूप से यह सीट उनके परिवार की रही है। उनके निधन के बाद उनके बेटे कोनरेड संगमा इस सीट से उम्मीदवार बने। उनको हराने के लिए मुख्यमंत्री मुकुल संगमा ने अपनी पत्नी दिकांची शिरा को उम्मीदवार बनाया। लेकिन वे दो लाख के करीब वोटों से हारीं। इसके बाद मुकुल संगमा के विरोधियों ने उनके खिलाफ मोर्चा खोला है। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने डीडी लपांग के नेतृत्व में दिल्ली में कांग्रेस आलाकमान को मुकुल संगमा के प्रति अपनी नाराजगी बताई है। कांग्रेस की मुश्किल यह है कि 60 सदस्यों की मेघालय विधानसभा में उसके सिर्फ 30 सदस्य हैं। यानी बहुमत के बिल्कुल बराबर। 13 सीटों पर निर्दलीय विधायक हैं और बाकी सीटें क्षेत्रीय पार्टियों के पास हैं। अगर कांग्रेस का कोई नेता पार्टी में बगावत को हवा देता है तो उसे निर्दलीय और क्षेत्रीय पार्टियों की मदद से सरकार बनाने का बहुमत मिल सकता है। तूरा लोकसभा सीट जीतने के बाद कोनरेड संगमा और उनका पूरा परिवार अब राज्य में सरकार बनाने की राजनीति में जुड़ गया है। उनकी पार्टी एनपीपी के दो विधायक जीते हैं और भाजपा का समर्थन उनके साथ है। सो, आने वाले दिनों में राज्य में राजनीतिक गतिविधियां तेज होंगी।
 यदि 2016 की शुरुआत में कांग्रेस का शासन नौ राज्यों में था, तो अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सरकारें संकट में ही चल रही हैं। मई आते-आते दो और राज्य असम व केरल भी इसके हाथ से निकल गये। सिर्फ मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, हिमाचल और कर्नाटक (इनमें से चार में 10 से भी कम सांसद हैं) ही कांग्रेस की छतरी के नीचे शेष रहेंगे। इसे कांग्रेस की अब तक की सबसे खराब स्थिति नहीं कहा जायेगा तो क्या कहा जायेगा। बेशक, भाजपा ने भारतीय राजनीति के मुख्य ध्रुव के रूप में कांग्रेस का स्थान ले लिया है। साथ ही कांग्रेस ‘संस्कृति’ को भी गले लगा लिया है : ‘पार्टी विद ए डिफरेंस’ अब ऐसी सत्ता है, जो केंद्र में शक्ति का निर्ममता के साथ निरंकुश इस्तेमाल कर रही है। अरुणाचल, खासतौर पर उत्तराखंड में भाजपा ने बता दिया है कि वह चुनी हुई सरकारें गिराने के लिए ‘साम, दाम, दंड, भेद’ की राजनीति का इस्तेमाल करने को तैयार है।
देखा जाये तो वास्तविक संकट कांग्रेस के भीतर मौजूद है, बाहर नहीं। कांग्रेस विधायकों के एक तबके के भीतर बढ़ती बेचैनी संकट का कारण बन गयी है। 2014 के आम चुनाव में अपमानजनक पराजय ने आत्मविश्‍वास का संकट खड़ा कर दिया है । कई विधायक मानते हैं कि कांग्रेस में फायदे का सौदा नहीं रहा है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर क्यों उत्तराखंड में विधायकों ने क्यों पाला बदला, जबकि राज्य में चुनाव के लिए सालभर भी बाकी नहीं रहा है?  कांग्रेस के प्रादेशिक नेतृत्व में विश्‍वास का संकट है। उत्तराखंड में विजय बहुगुणा को पार्टी हाईकमान के निकट होने के कारण ही मुख्यमंत्री बनाया गया था न कि इसलिए कि उन्हें विधानसभा में अधिकांश विधायकों का समर्थन प्राप्त था। जब उत्तराखंड में बाढ़ के बाद भ्रष्टाचार व अक्षमता के आरोपों के चलते उन्हें जाना पड़ा तो उनकी जगह हरीश रावत ने ली। अब वे भी सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग के आरोपों का सामना कर रहे हैं। हिमाचल में उम्र का आठवां दशक पार कर चुके वीरभद्र सिंह पर आयकर संबंधी जुर्माने से बचने के लिए फर्जी दस्तावेज बनाने के आरोप हैं। केरल में ओमन चांडी पर सौर ऊर्जा घोटाले के दाग लगे हैं। उधर कर्नाटक में तोहफे में दी गई 70 लाख रुपए की घड़ी सिद्दारमैया के ‘गरीबों के नेता’ होने के दावे की खिल्ली उड़ा रही है। असम में थके हुए दिखाई दे रहे तरुण गोगोई सत्ता विरोधी रुख से बेजार हैं। कांग्रेस ने अब तक यह वैचारिक भ्रम दूर नहीं किया है कि वह भाजपा की मजबूत चुनौती का जवाब किस तरह देगी। महाराष्ट्र में ‘भारत माता की जय’ कहने से इनकार करने वाले एमआईएम विधायक को निलंबित करने की मांग करने में कांग्रेस विधायक सबसे आगे थे, जबकि अगले ही दिन दिल्ली में पार्टी प्रवक्ता ने कहा कि यह नारा लगाना व्यक्तिगत निर्णय का विषय है, न कि ‘राष्ट्रवाद’ की परीक्षा। पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद आरएसएस की आईएसआईएस से अजीब तुलना करते हैं, जबकि गुजरात में आरएसएस के पूर्व नेता शंकरसिंह वाघेला पार्टी के प्रमुख नेता बने हुए हैं। बंगाल में पार्टी ने वाम दलों से चुनावी ‘तालमेल’ किया है, जबकि केरल में यह माकपा के खिलाफ कड़े संघर्ष में उलझी है। पार्टी संगठन का चेहरा लगभग 20 साल से नहीं बदला है। निहित स्वार्थी तत्वों के दबाव में संगठन के चुनाव बार-बार टाले गए हैं। नतीजे में पार्टी गहराई तक जमी बैठी लॉबियों की ‘बंद दुकान’ बन गई है। ऐसे में ‘मनोनीत’ नेताओं की संस्कृति बन गई है, जिनका प्रभाव जमीनी स्तर पर वोट हासिल करने की क्षमता के कारण नहीं बल्कि दिल्ली की सत्ता के गलियारों में नेटवर्किंग कौशल के कारण है। पार्टी का क्या हश्र हो गया है इसका जीवंत उदाहरण है कांग्रेस कार्यसमिति। इसमें थके हुए नेताओं का दबदबा है। इन सभी का मनोनयन पार्टी अध्यक्ष ने किया है। गांधी परिवार को लेकर भी दबे स्वर में विरोध श्ाुरू हो गया है। ऐसे में कांग्रेस को स्वयं अपने अंदर झांकने की जरूरत है। संकट का हल उसे अपने अंदर ही दिखायी देगा।

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