बयानवीर ‘माइक के लालों’ का बवाल
।। लोकनाथ तिवारी।।
(प्रभात खबर, रांची)
बयानवीर नेताजी ने स्वीकार किया है कि दस वर्षो तक सत्ता के शीर्ष पर रहा व्यक्ति दुर्घटनावश उस पद पर पहुंच गया था. ऐसा पीएम के एक पूर्व सलाहकार की ‘ऑथेन्टिक’ पुस्तक पर मुहर लगाते हुए कहा जा रहा है. दुर्घटनावश सरकारी अस्पताल के टुटहे बेड तक पहुंचते सुना था, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी तक.. यह बात हाजमोला खाकर भी हजम होने लायक नहीं लगती.
लगता है इन चाटुकारों का मौनी बाबा से काम सध चुका है. अब उनको दूध की मक्खी बनाने में इनको कोई हर्ज नहीं दिखता. उनकी शान में कसीदे पढ़नेवाले चमचानुमा नेता भी अब उनके बारे में टिहुक बानी बोल रहे हैं. सब समय का फेर है. या यूं कहिए कि चुनावी समर में सब जायज मान लिया गया है. ऐसा नहीं होता तो बलात्कारियों से हमदर्दी दिखानेवाले को नेताजी नहीं कहा जाता. सीमा पर शहीद होनेवालों को जाति व धर्म के आधार पर नहीं बांटा जाता. अपने ही देश के पूर्व प्रधानमंत्री की शहादत को उनकी करतूत की सजा नहीं बताया जाता. शालीनता को ताक पर रख कर चुनावी सभा में अपने समर्थकों की वाहवाही लूटने के लिए सरेआम अपशब्दों का दुरुपयोग नहीं किया जाता.
हमें तो अपने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री, मौनी बाबा की काबिलीयत को लेकर कभी संदेह नहीं रहा. बचपन से ही काका की निठुरी वाणी सुनता आया हूं. बबुआ कम खा अउरी गम खा. जिनिगी भर सुखी रहोगे. कम खाने की आदत ने पत्रकारिता में रहते हुए भी आर्थिक अभाव को कभी कोसने नहीं दिया और गम खाने की सलाह पर अमल करते हुए विपरीत परिस्थितियों में भी टिके हुए हैं. इस मामले में अपने मौनी बाबा बेजोड़ साबित हुए हैं. भारत में विपक्ष के हाड़भेदी बयानों को निर्विकार सह लेना सूखे पेड़ को भी तिलमिला देने के लिए काफी होता है. अपने पीएम साब ने तो विपक्षी बयान रूपी बाणों की धार को मूक व मौन के सहारे न केवल कुंद कर दिखाया है, बल्कि उनको झुंझलाने पर बाध्य भी कर दिया है. अब किसी ‘माइक के लाल’ के बयानों से उन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. अरे जब दस साल उनके बयान नहीं बेध पाये, तो अब क्या खाकर उन पर उन पर असर डाल पायेंगे.
शायद यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में भी कोई विपक्षी नेता प्रधानमंत्री पर निशाना नहीं साध रहा. लगता है इसकी कसर अब उनकी अपनी पार्टी के नेता पूरी कर रहे हैं. कहा भी गया है कि सोङिाया के मुंह कुकुर चाटे. अपने मौनी बाबा सोङिाया नहीं होते तो किसी में इतनी हिम्मत थी कि उनके खिलाफ व्यंग्य कर पाता. उनकी जगह कोई और होता तो आज एक और पार्टी का उदय हो गया होता. उसके सुप्रीमो हमारे मौनी बाबा होते. उनकी पार्टी का गंठजोड़ मुख्य विपक्षी पार्टी के साथ हो जाता. कल तक उन पर घोटाले का आरोप लगानेवाली पार्टी उनको सिर आंखों पर बैठा लेती, चरण पखारती..
(प्रभात खबर, रांची)
बयानवीर नेताजी ने स्वीकार किया है कि दस वर्षो तक सत्ता के शीर्ष पर रहा व्यक्ति दुर्घटनावश उस पद पर पहुंच गया था. ऐसा पीएम के एक पूर्व सलाहकार की ‘ऑथेन्टिक’ पुस्तक पर मुहर लगाते हुए कहा जा रहा है. दुर्घटनावश सरकारी अस्पताल के टुटहे बेड तक पहुंचते सुना था, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी तक.. यह बात हाजमोला खाकर भी हजम होने लायक नहीं लगती.
लगता है इन चाटुकारों का मौनी बाबा से काम सध चुका है. अब उनको दूध की मक्खी बनाने में इनको कोई हर्ज नहीं दिखता. उनकी शान में कसीदे पढ़नेवाले चमचानुमा नेता भी अब उनके बारे में टिहुक बानी बोल रहे हैं. सब समय का फेर है. या यूं कहिए कि चुनावी समर में सब जायज मान लिया गया है. ऐसा नहीं होता तो बलात्कारियों से हमदर्दी दिखानेवाले को नेताजी नहीं कहा जाता. सीमा पर शहीद होनेवालों को जाति व धर्म के आधार पर नहीं बांटा जाता. अपने ही देश के पूर्व प्रधानमंत्री की शहादत को उनकी करतूत की सजा नहीं बताया जाता. शालीनता को ताक पर रख कर चुनावी सभा में अपने समर्थकों की वाहवाही लूटने के लिए सरेआम अपशब्दों का दुरुपयोग नहीं किया जाता.
हमें तो अपने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री, मौनी बाबा की काबिलीयत को लेकर कभी संदेह नहीं रहा. बचपन से ही काका की निठुरी वाणी सुनता आया हूं. बबुआ कम खा अउरी गम खा. जिनिगी भर सुखी रहोगे. कम खाने की आदत ने पत्रकारिता में रहते हुए भी आर्थिक अभाव को कभी कोसने नहीं दिया और गम खाने की सलाह पर अमल करते हुए विपरीत परिस्थितियों में भी टिके हुए हैं. इस मामले में अपने मौनी बाबा बेजोड़ साबित हुए हैं. भारत में विपक्ष के हाड़भेदी बयानों को निर्विकार सह लेना सूखे पेड़ को भी तिलमिला देने के लिए काफी होता है. अपने पीएम साब ने तो विपक्षी बयान रूपी बाणों की धार को मूक व मौन के सहारे न केवल कुंद कर दिखाया है, बल्कि उनको झुंझलाने पर बाध्य भी कर दिया है. अब किसी ‘माइक के लाल’ के बयानों से उन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. अरे जब दस साल उनके बयान नहीं बेध पाये, तो अब क्या खाकर उन पर उन पर असर डाल पायेंगे.
शायद यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में भी कोई विपक्षी नेता प्रधानमंत्री पर निशाना नहीं साध रहा. लगता है इसकी कसर अब उनकी अपनी पार्टी के नेता पूरी कर रहे हैं. कहा भी गया है कि सोङिाया के मुंह कुकुर चाटे. अपने मौनी बाबा सोङिाया नहीं होते तो किसी में इतनी हिम्मत थी कि उनके खिलाफ व्यंग्य कर पाता. उनकी जगह कोई और होता तो आज एक और पार्टी का उदय हो गया होता. उसके सुप्रीमो हमारे मौनी बाबा होते. उनकी पार्टी का गंठजोड़ मुख्य विपक्षी पार्टी के साथ हो जाता. कल तक उन पर घोटाले का आरोप लगानेवाली पार्टी उनको सिर आंखों पर बैठा लेती, चरण पखारती..
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